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जैन-भक्तिकान्यकी भूमि ने उसे 'मानसचारित्र'को संज्ञासे अभिहित किया है।' चारित्र-भक्ति . आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है कि पूर्ण चारित्र पालकर, मोक्ष गये हुए सिद्धोंको वन्दनासे चरित्रगत विशृंखलता दूर होती है और मोक्षसुख प्राप्त होता है। उन्होंने पाँच प्रकारके चारित्रकी भक्तिसे, कर्म-मलका शुद्ध होचा लिखा है।
आचार्य समन्तभद्रने लिखा है कि सम्यक्चारित्रके द्वारा जिन्होंने आर्हन्त्यपद प्राप्त किया है, वे त्रिलोककी पूजाके अतिशय स्थान हैं ।
आचार्य पूज्यपादने आचारके पाँच भेद किये हैं---ज्ञानाचार, दर्शनाचार, तपाचार, वीर्याचार और चारित्राचार । पाँचों ही को वन्दना की है, और पांच
१. 'स द्विविधो वाह्य आभ्यन्तरश्चेति । बाह्यो वाचिकः कायिकश्च बाह्ये
न्द्रियप्रत्यक्षत्वात्, आभ्यन्तरो मानसः छमस्थाप्रत्यक्षत्वात् , तस्योपरमः सम्यक्चारित्रमित्युच्यते ।' आचार्य अकलंकदेव, तस्वार्थवार्तिक : पं० महेन्द्रकुमार सम्पादित, भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी, जनवरी १९५३, १११ की वार्तिक, पृ० ४ । २. जइ रायेण दोसेण मोहंणाणादरेण वा।
वंदित्ता सम्वसिद्धाणं संजदा सा मुमुक्षुणा ॥ संजदेण मए सम्म सव्वसंजममाविणा । सव्वसंजमसिद्धीओ लमदे मुत्तिजं सुहं ॥ दशभक्ति : शोलापुर, १९२१ ई०, प्राचार्य कुन्दकुन्द, प्राकृत चारित्र.
भक्ति : ९वीं-१०वीं गाथा, पृ० १५८ । ३. सामाइयं तु चारित्तं छेदो वट्ठावणं तहा ।
तं परिहारविसुद्धिं च संजमं सुहुमं पुणो ॥ जहाखादं तु चारित्तं तहाखादं तु तं पुणो । किच्चाहं पञ्चहाचारं मंगलं भलसोहणं ॥
देखिए वही : तीसरी, चौथी गाथा, पृ० १५२ । ४. स्त्रयोगनिस्त्रिंशनिशातधारया निशात्य यो दुर्जयमोह-विद्विषम् ।
अवापदाऽऽर्हन्त्यमचिन्त्यमद्भुतं त्रिलोकपूजाऽतिशयाऽऽस्पदं पदम् ॥ प्राचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : सरसावा, सहारमपुर, जुलाई १९५१, २३१३, पृ० ८२।