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जैन-मतिकाध्यको पृष्ठभूमि तीर्थकरके गणधरोंको 'योगि' संज्ञासे अभिहित किया जाता है। आचार्य जिनसेनने भगवान् महावीरके प्रधान गणधरको 'योगीन्द्र' और 'महायोगी कहा है । उनकी वन्दना करते हुए आचार्यने कहा, “हे देव ! आप महायोगी है, अतः आपको नमस्कार हो, आप महा बुद्धिमान् हैं, अतः आपको नमस्कार हो, आप जगत्के रक्षक और बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंके धारक हैं, अतः आपको नमस्कार हो।" उनको ही आचार्यने परमबन्धु, परमगुरु, भक्तोंको ज्ञान-सम्पत्ति देनेवाला तथा विश्वको धर्मसंहिताका निर्माता स्वीकार किया है।"
पं० आशाधरने अपने सहस्रनाममें 'योगि-शतक'की भी रचना की है। इसमें उन्होंने भगवान् जिनेन्द्रको योगी माना है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा, "हे भगवन् ! आप योगीन्द्र हैं, क्योंकि आप योगियों अर्थात् ध्यानियोंके इन्द्र है।"" एक-दूसरे स्थानपर उन्होंने कहा, "हे भगवन् ! आप योगज्ञ हैं, क्योंकि आप योग अर्थात् धर्म्य और शुक्ल दो ध्यानोंका अनुभव करते हैं।'
१. भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : प्रथम भाग, पं. पन्नालाल सम्पादित,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, २३।१९४, पृ० ५७१ । २. देखिए वहीं : २१६५, पृष्ट ३५ । ३. 'महायोगिन् नमस्तुभ्यं महाप्रज्ञ नमोऽस्तु ते ।
नमो महात्मने तुभ्यं नमः स्तात्ते महर्द्धये ॥' भगवजिनसेनाचार्य, महापुराण : माग १, पं० पन्नालाल सम्पादित, मार
तीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००७, २०६५, पृ० ३५ । ४. स्वमेव परमो बन्धुस्त्वमेव परमो गुरुः ।
स्वामेव सेवमानानां भवन्ति ज्ञानसम्पदः ॥ स्वयैव भगवन् विश्वा विहिता धर्मसंहिता । अत एव नमस्तुभ्यममी कुर्वन्ति योगिनः ॥
देखिए वही : २१७४, २१७५, पृष्ठ ३७ । ५. 'योगिनां ध्यानिनामिन्द्रः स्वामी' ।
पं० आशाधर, जिनसहस्रनाम : पं० हीरालाल सम्पादित, भारतीय ज्ञान
पीठ, काशी, फरवरी १९५४, ६७५ की स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ९२ । ६. 'योगं धर्म-शुक्लध्यानद्वयं जानात्यनुभवतीति'।
देखिए वही : ६८२की स्वोपज्ञवृत्ति, पृ० ९६ ।