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जैन-भक्तिके भेद
एक दूसरे स्थानपर उन्होंने, ज्ञानोदकसे निषिक्त, शील गुणसे विभूषित, तपःसुगन्धिसे सुगन्धित, राग-द्वेषसे रहित और शिवपथके नायक ऐसे योगियोंको नमस्कार किया है।
इन्हीं आचार्यने तिरकुरलमें लिखा है, "यदि तुम इन्द्रियोंको जीतनेवाले महर्षियोंकी शक्तिको मापना चाहते हो, तो देवोंके सम्राट् इन्द्रको ओर देखो, जो उन महर्षियोंकी शक्तिमें सदा तल्लीन रहता है।" __आचार्य समन्तभद्रने महान योगी मुनिसुव्रतनाथकी वन्दना करते हुए लिखा है, "आप अनुपम योगबलसे आठों पाप-मलरूप कलंकोंको, भस्मीभूत करते हुए, संसारमें न पाये जानेवाले सौख्यको प्राप्त हुए हैं। आप मेरी संसार-शान्तिके लिए भी निमित्तभूत होवें।"
आचार्य पूज्यपादने संस्कृत योगि-भक्तिमें, योगियोंके द्वारा किये गये विविध तपोंका विशद वर्णन किया है। अन्तमें उन्होंने योगीकी स्तुति करते हुए लिखा है, "तीन योग धारण करनेवाले, बाह्य और आभ्यन्तर रूप तपसे सुशोभित, प्रवृद्ध पुण्यवाले, मोक्षरूपी सुखको इच्छा करनेवाले मुनिराज, मुझ स्तुतिकर्ताको सर्वोत्तम शुक्लध्यान प्रदान करें।" १. णाणोदयाहिसित्ते सीलगुणविहूसिये तवसुगन्धे ।
ववगयरायसुदले सिवगइपहणायगे वन्दे ॥
देखिए वही : १४वीं गाथा, पृ० १७९ । २. विजिताक्ष महर्षीणां शक्तिरत्रास्ति कीरशी ।
ज्ञातुमिच्छसि चेत्तर्हि पश्य मतं सुराधिपम् ॥ एलाचार्य ( कुन्दकुन्दाचार्य ), कुरलकान्य : पं. गोविन्दराय जैन, हिन्दीसंस्कृत-अनुदित, महरौनी-झाँसी, वीर नि० सं० २४८०, मुनि माहात्म्यम्संस्कृत : ५वाँ श्लोक, पृ० । दुरित-मल-कलक्कमष्टकं निरुपम-योग-बलेन निर्दहन् । अमवदभव-सौख्यवान् मवान् भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ आचार्य समन्तमद्र, स्वयम्भूस्तोत्र : पं० जुगलकिशोर सम्पादित, हिन्दी
अनूदित, वीरसेवामन्दिर, सरसावा, जुलाई १९५१, २०१५, पृ० ७३ । ४. इति योगत्रयधारिणः सकलतपशालिनः प्रवृद्धपुण्यकायाः ।
परमानन्दसुखैषिणः समाधिमग्र्यं दिशन्तु नो भदन्ताः ॥ दशभक्यादिसंग्रह : श्री सिरसेन सम्पादित, सलाल, [साबरकाँठा], गुजरात, वी० नि० सं० २४८१, आचार्य पूज्यपाद, संस्कृत योगि-मक्ति : ८वाँ पद्य, पृ० १५६ ।
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