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जैन-मक्तिकान्यकी पृभूमि महाकवि पुष्पदन्त ( ११वीं शताब्दी विक्रम ) ने, चौदह पूर्व, बारह अंग, जिनमुखसे निकली हुई और सप्तभंगीमय श्रुतदेवीको वन्दनासे हो, णायकुमारबरिउका प्रारम्भ किया है। - श्री अमितगति ( वि. सं. १०५० ) ने सामायिक पाठमें लिखा है, "हे सरस्वतीदेवी ! यदि मैंने मात्रा, पद, वाक्य और अर्थहीन वचन कहे हों, तो आप क्षमा करें और मुझे पूर्ण ज्ञान दें।' उन्होंने यह भी कहा कि श्रुतदेवी अपने भक्तोंकी सभी मनोकामनाओंको पूरा करती है। ____ आचार्य सोमदेवने श्रुतदेवीकी भक्तिको ही सामायिक कहा है। उन्होंने अष्ट द्रव्योंसे श्रुतदेवीको पूजा भी की है। एक स्थानपर उन्होंने लिखा है कि सरस्वती स्याद्वाद रूप है, मुनियोंके द्वारा माननीय है, देवोंसे उपासनीय है। वह देवी अन्त:करणमें स्थित समस्त कलंकोंको धोकर शुद्ध बनाती है, और ज्ञानरूपी हाथीके अवगाहन करनेके लिए तो वह एक नदीके समान है।
आचार्य वसुनन्दिने श्रुतदेवीको मत्तिको स्थापनाकी बात कही है। उन्होंने लिखा, "श्रुतज्ञानके बारह अंग और उपांगवाली, सम्यग्दर्शनरूप तिलकसे विभूषित, चारित्ररूप वस्त्रकी धारक और चौदह पूर्व रूप आभरणोंसे मण्डित श्रुतदेवीकी
१. चउदह पुन्विल्ल दुवालसंगि, जिणवयणविणिग्गयसत्तमंगि।
वायरणवित्ति पायडियणाम, पसियउ महु देवि मणोहिराम ॥. पुप्फयंत, णायकुमारचरिउ : डॉ० हीरालाल जैन सम्पादित, बलात्कारगणजैन पब्लिकेशन सोसाइटी, कारंजा, बरार, १९३३ ई०, पहली सन्धि,
९,१० पंक्ति, पृ०३।। २. यदर्थमात्रापदवाक्यहीनम्, मया प्रमादाथदि किञ्चनोक्तम् ।
तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवलबोधलब्धिम् ॥ अमितगति, सामायिकपाठ : ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी सम्पादित, धर्मपुरा,
देहली, वि. सं० १९७७, १०वाँ श्लोक, पृ० १३ । ३. बोधिः समाधिः परिणामशुद्धिः, स्वास्मोपलन्धिः शिवसौख्यसिद्धिः ।
चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने, स्वां वन्धमानस्य ममास्तु देवि ॥
देखिए वही : ११वाँ श्लोक, पृ० १४ । ४. स्यावादभूधरमवा मुनिमाननीया देवैरनन्यशरणैः समुपासनीया ।
स्वान्ताश्रिताखिलकलङ्कहरप्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ॥ सोमदेव, यशस्तिलक : काव्यमाला ७०, बम्बई, १९०१, पृ० ४०१ ।