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जैन-भक्तिकाम्पकी पृष्ठभूमि करता है। श्रुतकी महिमा
तीर्थकर नामकर्मका आस्रव, अहंन्त, आचार्य और उपाध्याय भक्तिके साथ बहुश्रुतभक्तिसे भी होता है ।
आत्मा ज्ञानरूप है, और श्रुत भी एक ज्ञान है, अतः श्रुतज्ञान भी आत्मा को जाननेमें पूर्ण रूपसे समर्थ है। श्रुतज्ञान और केवलज्ञानमें केवल परोक्ष और प्रत्यक्षकृत भेद है, सब पदार्थोंको विषय करनेकी अपेक्षा दोनों समान हैं ।
१. इतिहासप्रसिद 'अकाल' के उपरान्त, मगवान् महावीरके बिखरे
उपदेशोंको इकट्ठा करनेके लिए एक समा पाटलिपुत्रमें हुई ( आवश्यकचूर्णि)। इस समाका समय वीरनिर्वाण सं० १६० और ईसा पूर्व ३०७ वर्ष है। दूसरी समा मथुराम, आर्य स्कन्दिलके सभापतित्वमें हुई ( नन्दी चूर्णि)। इसका समय वी. नि० सं० ८२७-८४० और ईसा पश्चात् ३६०-३७३ माना जाता है। तीसरी सभा बल्लभीमें, देवर्द्धिगणिके सभापतित्वमें हुई ( योगशास्त्र-हेमचन्द्र)। इसका समय वी०नि० सं० ९८० और ईसा पश्चात् ५.३ निर्धारित किया गया है। देखिए, Dr. Jagdishchandra Jain, Life in Ancient India, As depicted in the Jain Canons, New Book Company, _Ltd, 1947, P. 35-53. २. श्री उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र : पं. कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी
मथुरा, ६२४, पृ० १५३ ।। ३. जो सुयणाणं सम्बं जाणइ सुयकेवलिं तमाहु जिणा।
णाणं अप्पा सम्वं जम्हा सुयकेवली तम्हा ॥ आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार : पं० परमेष्ठीदास हिन्दी अनूदित, श्री पाटनी दि. जैन प्रन्थमाला २५, मारौठ ( मारवाड़), फरवरी १९५३, १०वीं
गाया, पृ० २१ । ४. आये परोक्षम् ॥ प्रत्यक्षमन्यत् ॥
उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र : पं० कैलाशचन्द्र सम्पादित, चौरासी, १११,
१३१२, पृ०१२। ५. पं० आशाधर, जिनसहस्त्रनाम : पं० हीरालाल सम्पादित, हिन्दी-अनूदित,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, फरवरी १९५४, ८1७४, हिन्दी अनुवाद ।