Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 50
________________ जैन - भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि बृहत् जैन शब्दार्णवमें पूजनके पांच भेद दिये हुए हैं—नित्य, अष्टाह्निका, ऐन्द्रध्वज, चतुर्मुख या सर्वतोभद्र और कल्पद्रुम । " नित्य पूजन वह है जो प्रतिदिन किया जाये | अष्टाह्निकामें कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में नन्दीश्वरके ५२ चैत्यालयोंकी पूजा की जाती है । ऐन्द्रध्वज - इन्द्रादि द्वारा, चतुमुख या सर्वतोभद्र - मुकुट -बद्ध राजाओं द्वारा होती है । २६ ܝܪ इयबंदणमहाभासमें पूजाके तीन भेद दिये गये हैं-अङ्ग-पूजा, आमिषपूजा और स्तुति-पूजा । "वस्त्राभरण - विलेपन-सुगन्धिगन्धैर्धूपपुष्पैः", जिनाङ्ग पूजा की जाती है । इसमें गीत- वस्त्रादिका भी आयोजन रहता है। आमिष पूजाका भाष्य करते हुए लिखा है, "यः पञ्चवर्णस्वस्तिक -बहुविधफल- भक्ष्यदीपनादिः । उपहारो जिनपुरतः क्रियते साऽऽभिषसपर्या ।" गन्धर्वनाट्य भी इसी में शामिल है । भगवान् जिनेन्द्रके सम्मुख बैठकर यथाशक्ति वृत्तोंका उच्चारण करना ही स्तुति-पूजा है । अभिधानराजेन्द्र कोश में पात्र की दृष्टिसे पूजा के तीन भेद माने गये हैं- देव, शास्त्र और गुरु । शरीर, वस्त्र और व्यवहारको शुद्धि तथा हृदयकी श्रद्धासे समन्वित होकर पुष्प, पक्वान्न, फलादि, वस्त्र और शोभन स्तोत्रोंसे देवका पूजन करना चाहिए । आचार्य सोमदेवने यशस्तिलक चम्पूमें लिखा है, "देव सेवा में स्नपन, पूजन, स्तोत्र, जप, ध्यान और श्रुतस्तव, छह क्रियाएँ सद् गृहस्थको करनी ही चाहिए। शास्त्र पूजनकी बात श्रुत-भक्ति में लिखी जा चुकी है। देवके साथ-साथ गुरुशब्द भी जुड़ा हुआ है । आचार्य कुन्दकुन्दके मोक्षपाहुडमें दोनों ही की भक्तिका महत्त्व बतलाया गया है । गुरुका भक्त योगको ठोक ढंगसे साध पाता है और मोक्ष - मार्गको प्राप्त कर लेता है । किन्तु उसका अधिकाधिक १. बृहत् जैनशब्दार्णव : द्वितीय खण्ड, ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जैन सम्पादित, दिगम्बर जैन पुस्तकालय सूरत, पृ० ५४२ । २. श्री शान्तिसूरि, चेइयवंदण महाभासम् : श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, वि० सं० १९७७, १९९वीं गाथा, पृ० ३६ ॥ ३. देखिए वही : गाथा २००-२, पृ० ३६ ॥ ४. देखिए वही : गाथा, २०४-५, पृ० ३७ ॥ देखिए वही : गाथा, २०७, पृ० ३७ । ५. ६. पुष्पैश्च बलिना चैव, वस्त्रैः स्तोत्रैश्च शोभनैः । देवानां पूजनं ज्ञेयं शौच श्रद्धासमन्वितम् ॥ अभिधान राजेन्द्र कोश : भाग ५, ११६वाँ इलोक, पृ० १०७५ । आचार्य कुन्दकुन्द, अष्टपाहुड : मोक्षपाहुड : ८२वीं गाथा, पृ० १३२ ।

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