Book Title: Jain Bhaktikatya ki Prushtabhumi
Author(s): Premsagar Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 56
________________ HOT NE devendrashad ३२ जैन- भक्तिकाव्यकी पृष्ठभूमि बनाया था, जिसमें २६ पद्य हैं । जिनप्रभसूरिने भी चतुर्विंशति जिनकल्याणकल्पऔर अम्बिकादेवीकल्प प्राकृत में ही रचे हैं। सूरिजी चौदहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध कवि थे । 3 ४ संस्कृत भाषा में जैन स्तुति स्तोत्रोंकी बहुत अधिक रचना हुई । आचार्य समन्तभद्र [विक्रमकी दूसरी शताब्दी ] ने स्वयम्भूस्तोत्र और स्तुति-विद्या स्तोत्र बनाये," जिनमें चौबीस तीर्थ करोंकी स्तुति की गयी है । सिद्धसेन दिवाकर [ विक्रमकीपाँचवीं शताब्दी ] ने कल्याणमन्दिर स्तोत्र" और कुछ द्वात्रिंशिकाओंकी रचना की थी । द्वात्रिंशिका स्तुतिको कहते हैं । पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने उनकी रची २१ द्वात्रिशिकाओंकी बात कही है, जिनमें से केवल छह भगवत् विषयक स्तुतिसे सम्बन्धित हैं । आचार्य देवनन्दि पूज्यपादने सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगभक्ति, आचार्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति, तीर्थ करभक्ति, शान्तिभक्ति, समाधिभक्ति, निर्वाणभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति, और चैत्यभक्तिका संस्कृतमें निर्माण किया था । इन्हें १२ स्तोत्र ही कहना चाहिए। इनका प्रकाशन 'दशभक्ति : ' नामकी पुस्तक में हो चुका है । विद्यानन्दि पात्रकेशरी [ ईसाकी छठी शताब्दी ] ने पात्रकेशरी स्तोत्र की रचना की, जिसमें ५० श्लोकोंसे भगवान् महावीरकी स्तुति १. देखिए वही : पृ० ९५-९८ । २. दोनों ही क्रमशः, विविधतीर्थकल्प, मुनि जिनविजय सम्पादित, सिन्धी जैन ज्ञानपीठ, शान्तिनिकेतन, विक्रमाब्द १९९०, पृष्ठ ९९ और ६१ पर छप चुके हैं। ३. देखिए वही प्रास्ताविक निवेदन, पृष्ठ १ | : और Dr. Winternitz, History of Indian Literature, Vol.II, P. 521. ४. दोनों ही, पं० जुगलकिशोर मुख्तारके हिन्दी अनुवाद और सम्पादनके साथ, वीरसेवा मन्दिर सरसावा (सहारनपुर) से वि० सं० २००८ में प्रकाशित हो चुके हैं देखिए काव्यमाला, सप्तम गुच्छक : पं० दुर्गाप्रसाद और वासुदेव लक्ष्मण सम्पादित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९२६ ईसवी, पृ० १० १७ । ६. न्यायावतारं सूत्रं च श्रीवीरस्तुतिमप्यथ । द्वात्रिंशच्छ्लोकमानाश्च त्रिंशदन्य: स्तुतीरपि ॥ १४२ ॥ प्रभाचार्य, प्रभावकचरित: जिनविजय सम्पादित, विद्या-भवन, बम्बई, १९४०, पृ० ५९ । पुरातन जैन वाक्य सूची : प्रथम भाग, पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादित, वीरसेवामन्दिर सरसावा, १९५० ईसवीं, प्रस्तावना, पृष्ठ १३० । ५. ७.

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