Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जैनवालवोधककाल कहते हैं । केवल ऐसे प्राणी जो माता पिताके संयोगसे उत्पन्न होते हैं, देवोंके द्वारा स्वयं पहाड़ोंकी गुफा वगेरह सुरक्षित स्थानों में जाकर अपनेको बचालेते हैं। यही समय अवनति रूप अवसर्पिणी नामकी पूर्णताका अंत समय है।
इस प्रकार अवसर्पिणी काल पूरा हो जानेके पश्चात् उत्स र्पिणी कालका (उन्नति रूप कालका ) प्रारंभ होता है . इसके भी छह विभाग होते हैं । पहिला विभाग वही इक्कीस हजार वर्ष का दुःषमादुःपमा काल होता है, इस कालके प्रारंभमें जो मनुष्य पशु बच गये थे, वे आकर बसते हैं और क्रमसे उन्नति करते जाते हैं । २१ हजार वर्पके बाद फिर २१ हजार वर्षका दूसरा दुःपमा काल पाता है इसमें भी मनुष्योंकी वायुकायादि क्रमसे बढ़ते जाते हैं, इसके बाद तीसरा सुपमा दुःपमा चौथा दुषमासुषमा पांचवां सुपमा वा छठा सुषमासुपमा काल होता है। इनमें आयुकायादिकी वृद्धि होती जाती है । तीसरे कालमें मर्थात् अवसर्पिणोके चौथे कालकी समान फिर चौवीस तीर्थकरादि ६३ शलाका पुरुष ( महापुरुष । होते हैं और धर्मकी प्रवृत्ति बढ़ती २ जाती है । इस कर्मभूमिके वाद चौथे कालमें जघन्य भोगभूमि (श्रवसर्पिणीके तीसरे कालकी समान) पांचवेमें मध्यम भोगभूमि, बढेमें उत्तम भोगभूमि इस प्रकार होकर उत्सर्पिणी काल पूर्ण हो जाता है उसके बाद फिर प्रवसर्पिणी काल पूर्वकी समान प्रारंभ होता है।
इस प्रकार प्रार्य खंडमें समयका परिवर्तन हमेशह होता रहता है। वर्तमान समय अवसर्पिणी कालका (अवनति रूप