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थे। बोर्ड आफ संस्कृत स्टडीज-यू० पी० (UP Board of Sanskrit Studies ) के भी सदस्य निर्वाचित किये गये थे।
सन् १६१८ ई० में आपकी बनाई हुई 'चातुर्वर्ण्य शिक्षा' की हस्त लिखित प्रति डा० वेनिस प्रिंसिपल, संस्कृत कालेज बनारस ने, जो कि भारतीय दर्शनशास्त्र के विशेषज्ञ थे, देखी और आपकी विद्वत्ता पर मुग्ध होगये। कालेज के अन्य प्रमुख विद्वानों ने भी उक्त पुस्तक का अनुशीलन करके अपनी सम्मति प्रदान की। : तदनन्तर शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों को उक्त ग्रन्थ का महत्व ज्ञात हुआ और युक्तप्रान्त की सरकार ने आपको 'महामहोपाध्याय की पदवी देने का निश्चय किया। आप यू०पी० के निवासी तथा प्रान्त के विद्वान थे । परन्तु जयपुर स्टेट सर्विस मे थे। सन् १६१८ ई० मे उक्त पदवी की पोशाक
और प्रमाण पत्र जयपुर के रेजीडेट महोदय के द्वारा स्टेट कौंसिल को भेज दिया गया । यह सवादजवजयपुर नरेश धर्मप्राण महाराज श्री सवाई माधव'सिंहजी को बतलाया गया तो वे बहुत सन्तुष्ट और प्रसन्न हुए। इस उपलक्ष्य में जयपुर के प्रधान, पुष्पोद्यान 'रामनिवास बाग' में बडे समारोह के साथ सभा
आमंत्रित की गई, एवं रेजीडेंट महोदय ने स्वयं आपको उक्त पदवी का प्रमाण पत्र अर्पित किया।
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- . - इस प्रकार आपने प्रसंगागत अनेक लौकिक, धार्मिक और सामाजिक कार्यों का नियमानुसार संचालन करते हुए समयवश शारीरिक शिथिलता का अनुभव करके सन् १९२६ ई० में संस्कृत कालेज के अध्यक्षपद से अवकाश ग्रहण कर लिया। वारतव मे आप वानप्रस्थाश्रम के भाव से जयपुर मे अयाचित व्रत से निवास करते थे और शास्त्र चिन्तन एवं परमेश्वराराधन में सदा मग्न रहते थे । ससारी कर्मजाल और कृत्रिम बाह्याडम्वर के प्रलोभनों से अलग होने पर भी जनता की श्रद्धा और विश्वास के आश्रय थे।
सन् १९३३ ई० में आपने जयपुर नगर के उपनिवेश ब्रह्मपुरी में, बस्ती के समीप ही सड़क पर एक स्वतन्त्र स्थान वनवाया था। इसका नाम 'सरस्वती पीठ' है। इस पीठ के बाहरी फाटक पर देवनागरी अक्षरों मे' 'तेजस्विनावधीतमस्तु' लिखा है। पीठ के भीतर कूप, पुष्पवाटिका और विभिन्न स्थानों