________________
३
'इतस्तत उदित्वरव्रततिनद्धवृक्षावली
- लुलविहगमण्डलीमधुररावसंसेविताम् । स्खलत्कुसुमसौरभप्रसरपूर्यमाणाश्रमां
भजामि भयखण्डिकां सपदि चण्डिकामग्बिकाम् ।। 'द्विषत्कुलकृपाणिकां, कुटिलकालविध्वंसिकां ।
विपद्वनकुठारिका, त्रिविधदुःखनिर्वासिकाम् । कृपाकुसुमवाटिकां, प्रणतभारतीभासिकां भजामि भयखण्डिका सपदि चण्डिकामम्बिकाम् ।।'
(चण्डिका-स्तुति ४.७.८) भावार्थ-जो अपने पास मे स्थित सरोवर की शोभा को संहस्रदलकमलों के विकाश के द्वारा प्रफुल्लित करके मानो अपने कृपामृत की प्रचुरता का ध्यान दिलाती है । एवं प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाली हर्पप्रद घटनाओं के सृजन करने कारण अत्यन्त स्निग्धस्वभाववाली तथा भय को दूर भगाने वाली माता चण्डिका की शरण लेता हूँ।
जिनके आश्रम मे विकसित लताओं एवं वृक्ष-श्रेणियों में स्वच्छन्दता से इधर उधर विहार करने वाले पक्षियों के मुण्ड अपने मधुर कलरव द्वारा भगवती की सेवा करते हैं। तथा वृक्षों से गिरने वाले विभिन्न पुष्पों की सुगन्ध से जिनका आश्रम महका करता है। ऐसी अलौकिक प्रभावशालिनी का स्मरण करता हूँ।
जो शत्रुवर्ग के लिए कृपाण की धारा हैं; और कुटिल काल का भी अन्त करदेने वाली हैं; विपत्तियों के वन को जो सहज ही कुठार की तरह काट देती हैं, और त्रिविध दुखों को दूर करने वाली हैं, जो कृपारूपी पुष्पों की फुलवाडी हैं, और केवल प्रणाम करने मात्र से ही अभीष्ट विद्याओं का प्रकाश करने वाली हैं-ऐसी भगवती चण्डी की वन्दना करता हूँ।