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अवतक वहां सुरक्षित रक्खा है । लोगों का यह भी कहना है, कि उनकी इस प्रत्यक्ष महिमा से प्रभावित होकर ही अकबर ने उस समय इस पर्वतीय प्रदेश में एक नहर निकलवाई थी, जो 'अकबर नहर' के नाम से आज भी प्रसिद्ध है।
ऐतिहासिक महत्व-यह मन्दिर बहुत प्राचीनकाल से ही हिन्दू आर्यों का पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता रहा है। लाहोर के यशस्वी नरेश महाराजा रणजीतसिंह ने अपने राज्यकाल में इस स्थान की तीन महत्वपूर्ण यात्रायें की थीं। ईसवीय सन् १८१५ में उन्होंने इस ऐतिहासिक मन्दिर के शिखर पर स्वर्णपत्र चढवाया था। अमृतसर का सिखों का सुप्रसिद्ध गुरुद्वार जिसे दरबार साहब एवं स्वर्णमन्दिर भी कहते हैं-उस पर तथा ज्वालादेवी के मन्दिर पर एक ही समय में और एक ही शिल्पी के द्वारा ताम्र पत्र पर स्वर्ण का कलात्मक सृजन किया गया था । उक्त दोनों ही स्थानों के स्वर्ण पत्रों के प्राचीन होजाने से अव उनका स्वर्णिम सौन्दर्य यत्र-तत्र धुल गया है । सुना जाता है, कि भारत की वर्तमान राष्ट्रीय सरकार इसकी सुरक्षार्थ जीर्णोद्धार कराने का विचार कर रही है। __महाराजा रणजीतसिंह के पौत्र राजकुमार नौनिहालसिंह ने भी ज्वालाजी के दर्शनार्थ यहां की यात्रा की थी, और मन्दिर के प्रधान द्वार पर लगे हुए किवाडों पर चांदी के कलापूर्ण पत्रे चढवाये थे। इसी प्रकार पटियाला और नाभा के भूतपूर्व नरेशों ने भी इस स्थान की यात्रा की थी, और मन्दिर में श्वेत संगमरमर की फर्श बनवायी थी। वर्तमान नेपाल नरेश के प्रपितामह भी देवीजी के दर्शनार्थ यहां आए थे, और मन्दिर में एक विशाल घण्टा लगवाया था।
कांगडा प्राचीन काल से ही हस्तनिर्मित-चित्रकला मे अपना एक विशिष्ट स्थान रखता आया है। कांगडा कलम के बने हुए चित्र कलात्मक दृष्टि से बहुत सजीव-सुन्दर एवं आकर्षक होते हैं । उक्त ज्वालाजी के मन्दिर में यहां की शैली से बनाये हुए देवी-देवताओं के अनेक चित्र अङ्कित हैं जो वास्तव में चित्र-कला प्रेमियों के लिए महत्व के होने के साथ २ दर्शनीय भी हैं।
पौराणिक-आधार-शिव-पुराण की ज्ञानसंहिता के अन्तर्गत सातवें अध्याय मे ज्वाला देवी की उत्पत्ति कथा उपलब्ध होती है। उस कथा का सारांश इस प्रकार है