________________
सती के पिता दक्षप्रजापति ने किसी समय गङ्गा नदी के तट पर कनखल (कर्णखलु) में एक यज्ञ किया था। इस यज्ञ मे दक्ष ने समस्त देवताओं को
आमन्त्रित किया था किन्तु जामाता शंकर से किसी कारणवश रुप्ट रहने से उन्हें आमन्त्रित नहीं किया। सती को यद्यपि यह सब कुछ पहले से ही ज्ञात होगया था, किन्तु फिर भी वह शंकर का अनुरोध न करके यज्ञ के अवसर पर अपने पिता के घर चली गई। वहां जाकर जव उन्होंने यज्ञ मण्डप के द्वार पर, अपमान करने के निमित्त द्वारपाल के रूप मे खडी की गई शंकर की मूर्ति को देखा तो उनके दुःख का ठिकाना न रहा। इसके सिवा किसी भी आत्मीयजन ने वहां पहुंचने पर उनका यथोचित स्वागत-सत्कार भी नहीं किया। यज्ञ की समाप्ति के समय पूर्णाहुति के अवसर पर शंकर को छोडकर अन्य सभी देवताओं के नाम से पूर्णाहुति दी गई। सती को शंकर का यह घोर अपमान सहन न हुआ,
और उन्होंने इस दुख के कारण यज कुण्ड मे कूद कर अपने प्राण छोड दिये। इस दुःखपूर्ण और अप्रत्याशित घटना से यज्ञ मण्डप के चारों ओर हाहाकार मच गया । इतने ही मे इधर कैलाश से सती के साथ आये हुए, शंकर के प्रमुख सेनापति वीरभद्र ने कुपित होकर इस यज्ञ को नष्ट कर दिया और दक्ष का शिरच्छेद कर डाला। ___यज्ञ में उपस्थित देवतागण इस घटना से दुःखी और भयभीत हो उठे। उन्हें यह भी डर लगा कि इस समय यदि कहीं कुपित होकर शंकर ने रौद्ररूप धारण कर लिया तो सारी सृष्टि ही समाप्त होजायगी । इस हेतु वे शंकर की प्रसन्नतार्थ उनकी स्तुति करने लगे। शंकर तत्काल ही यज्ञ मण्डप में आ पहुंचे
और देवताओं के अनुनय-विनय एवं प्रार्थना करने पर यज्ञ को पुनः यथावत् कर दिया। इस प्रसंग में सती के योगाग्निदुग्ध शरीर से जो ज्वाला निकली वह एक पहाड़ पर चली गई।
इस प्रकार सती के शरीर त्याग कर देने पर शंकर अत्यन्त दु:खी हो उठे और मोहवश वे सती के उस दग्धशरीर को अपने कन्धों पर रखकर उन्मत्त की तरह, विलाप करते हुए इधर उधर घूमने लगे। देवताओं ने जव उनकी यह दशा देखी तो उन्हें डर लगा कि यदि कदाचित् शंकर इसी अवस्था में रहे, तो जगन् का संहार कार्य बन्द होजायगा, और सृष्टि का कोई ठिकाना न रहेगा। फलतः मनुष्यलोक में अनाचारों की वृद्धि होजायगी। इस मौके पर भगवान्