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है । नवदुर्गाओं का कोई स्वतंत्र स्तोत्र उपलब्ध नहीं होता। अतएव उनके संवन्ध में प्रचलित पौराणिक आख्यानों का सार और आगमोक्त विशेषताओं का समन्वय करते हुए गुणधर्मानुमोदित वर्णन है। तथा महाकाली आदि दुर्गापाठ मे वर्णित त्रिशक्तियों का इनसे संवन्ध और अन्त में इन सवका दुर्गा के रूप मे अन्तर्भाव होना बतलाया है ।
३. अष्टमूर्ति-स्तव-अष्टमूर्ति शिव और शक्ति का संमिलित नाम माना गया है। पृथ्वी आदि पञ्चतत्त्व, यजमान और सूर्य-चन्द्र के रूप मे शंकर के जो आठ प्रकार के रूप शास्त्रों में निर्दिष्ट हैं उनके अनुसार प्रत्येक मूर्ति की अलग २ उल्लेखनीय विशेषताओं को लेते हुए यह स्तुति की गई है । महाकविकालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल के मङ्गलाचरण मे शिव की इन्हीं अष्टमूर्तियों की स्तुति की गई है, जो कि इस प्रकार है
'या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हवि र्याच होत्री ये द्वे कालं विधत्त. श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् । यामाहुः सर्ववीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतुवस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥' इस प्रसंग में शैवदर्शन में प्रतिपादित षट्त्रिंशत् तत्त्वों का शिव में अन्तर्भाव होना भी बतलाया है।
४. चण्डीशाष्टक इसमें रौद्ररस की प्रधानता है, और उसी के अनुरूप स्रग्धरा छन्द में इसकी रचना की गई है । मदन दहन, शिवजी के ताण्डव नृत्य तथा शिव-परिवार के सभी प्रधान अगों का प्राकृतिक और सुन्दर वर्णन है। रौद्ररस का परिपोष होने से स्तोत्र की सजीवता हृदयाकर्पक है।
५. हरिहराएक-यह विष्णु और शिव की संमिलित स्तुति है। दोनों फा आपस मे एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक स्नेह-वन्धन बतलाया गया है। एक मे शृगार और दूसरे में वैराग्य की प्रधानता स्वीकार करते हुए मौलिक दृष्टि से दोनों की एकता का स्थापन किया है। साथ ही मनमानी खींचतान के द्वारा उपासना क्षेत्र मे संप्रदायागत दोनों के पारस्परिक विरोध को अवास्तविक और शास्त्रविरुद्ध ठहराया है। व्यास आदि मान्य ऋषि मुनियों को भी यही संमत है, क्योंकि दोनों ब्रह्म के ही प्रतीक हैं और उनमें कोई मौलिक भेद नहीं हैं।