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१२-अन्तर्विमर्श-इसमे मुख्यतः कुण्डलिनी शक्ति के आरोह और अवरोह के क्रम का प्रतिपादन तथा योगदर्शन मे वर्णित संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात समाधियों द्वारा उसके साक्षात्कार का दिग्दर्शन कराया है। इसके अतिरिक्त साकार और निराकार दोनों अवस्थाओं मे उपासना की दृष्टि से भावना की प्रधानता, व्यापकता और उसके द्वारा विविध शक्ति रूपों का परिणामन दिखलाया गया है। समूचा स्तोत्र कुण्डलिनी के ही चमत्कार पूर्ण विलासों का निदर्शन है। तंत्रशास्त्र की परिभाषा में इसको अन्तर्याग की संज्ञा दी गई है। यहां इसी अन्तर्याग के वर्णन के कारण इसका नाम अन्तर्विमर्श रखा गया है।
१३-आर्याभ्यर्चना-इसमें भगवती के निराकार रूप की प्रधानता बतलाते हुए सर्वसाधारण की दृष्टि से उनके साकार रूप की कल्पना तथा पञ्चायतन के रूप में उपासना प्रणाली की प्रमुखता का निर्देश किया है। साथ ही इस उपासना के द्वारा लौकिक सुखों के उपभोग तथा स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) तीनों की सुगम उपलब्धि का निरूपण है। शक्ति-पञ्चायतन के पूजा प्रकार में स्थूल और सूक्ष्म दोनों उपासना क्रमों का समन्वय और उनका एकत्र अन्तर्भाव होना भी बतलाया गया है।
१४-अवस्था-निवेदन-इसमे भक्त की कठिनाइयों और उसकी अपनी करुणदशा का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। एक ओर सामाजिक जीवन में होने वाले विपरीत और कटु अनुभव दूसरी ओर मानव सुलभ दुर्बलताओं 'का अनेक रूप से चित्रण करते हुए भक्त की विवशता एवं दयनीय दशा का हृदयस्पर्शी विश्लेषण उपस्थित किया है। दुनियादारी के जाल और प्रलोभनों में फंसकर मनुष्य किस प्रकार अपना विवेक खो बैठता है, स्वार्थ के वशीभूत होकर सत्य और असत्य की परवाह न करके किस प्रकार अपने कर्तव्यमार्ग से च्युत हो जाता है। परिणाम में उसे कैसी निराशाओं का सामना करना पडता है, और अन्त में अपने किये पर कितना अनुताप होता है, आदि व्यवहार क्षेत्र के संवन्ध में मार्मिक उद्बोधन है। इसकी रचना संस्कृत के शिखरिणी छन्द मे होने से करुण और वात्सल्य रस का संपुटित परिपाक अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाता है। इसमें वर्णित अनुभूतियां हृदय को द्रवित करने वाली हैं। अत. यह अवस्था निवेदन मानसिक वेदनाओं की प्रधानता के कारण स्वसंवेद्य है।