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उपस्थापना १. ग्रन्थ-परिचय
प्राचीन काल में वाद, विवाद, शास्त्रार्थ आदि के माध्यम से अपने धर्म की प्रतिष्ठा और प्रचार-प्रसार की योजना बनाना और उसे कार्यान्वित करना एक साधारण और सर्वमान्य बात थी। इसलिए शास्त्रार्थ के नियम, प्रतिनियम भी बनते-बिगडते रहे। उसका भी दार्शनिक क्षेत्र में एक अपना महत्त्व और इतिहास है। सुत्तनिपात में ब्राह्मणों को 'वादशीला' कहा गया है । इससे पता चलता है कि वादपरम्परा का प्रारम्भ ब्राह्मण वर्ग से हुआ है और चूंकि वे अध्येता थे, वाद करना उनका स्वभाव हो गया था । वाद, जल्प और वितण्डा तथा छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे साधनों का प्रयोग न्यायपरम्परा में होता रहा है। वहाँ कहा गया है कि जिस प्रकार खेत की रक्षा के लिए काँटेदार बाडी की आवश्यकता होती है उसी प्रकार तत्वसंरक्षण के लिए जल्प और वितण्डा में छल, जाति आदि का प्रयोग अनुचित नहीं है।'
धर्मपरीक्षा (धम्म परिक्खा) इसी प्रकार का एक ऐसा व्यंग्य प्रधान ग्रन्थ है जिसमें शास्त्रार्थ के अध्यम से परपक्ष-खण्डन और स्वपक्ष-मण्डन किया गया है। पौराणिक कथाओं की समीक्षा का आधार लेकर कवि ने इस काव्य में मनोरजकता ला दी है और पौराणिक कथाओं को अविश्वसनीय सिद्ध कर किया है । इसके अध्ययन से यह तथ्य प्रमाणित होता है कि जन परम्परा ने छल. जाति आदि के प्रयोग का कभी भी समर्थन नहीं किया। सिद्धसेन ने 'वादद्वित्रिशिका' और अकलंक ने 'अष्टशती-अष्टसहस्री' में यह स्पष्ट किया है कि वादी का कर्तव्य है कि वह प्रतिवादी के सिद्धान्तों में वास्तविक कमियों की ओर संकेत करे और फिर अपने मत की स्थापना करे । सत्य और अहिंसा के आधार पर ही हर दृष्टिकोण को प्रस्तुत किया जाना चाहिए। १. धमपरीक्षा नामक अनेक ग्रन्थ
धर्मपरीक्षा का विषय बहुत लोकप्रिय रहा है । आचार्यों ने उस विषय को अपनी-अपनी काव्य-प्रतिभा से आकलित किया है। उस नाम से जिन ग्रन्थों की जानकारी मिल सकी है, वह इस प्रकार है1. न्यायसूत्र, 4-2-50
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