Book Title: Dashashrut Skandh Granth
Author(s): Kulchandrasuri, Abhaychandravijay
Publisher: Jain Shwetambar Murtipujak Sangh
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चतुर्था - ऽध्ययन - निरुक्तिः । गणिसंपदा । गणि-निक्षेपः ।
नायं गणिअं गुणिअं गयं च एगट्ठ एवमाईअं । नाणी गणित्ति तम्हा धम्मस्स विआणओ भणिओ ||२६|| आयारंमि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारधरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ||२७|| गण-संगहुवग्गह-कारओ गणी जो पहू गणं धरिउं । तेण णओ छक्कं संपयाए पगयं चउसु तत्थ ||२८|| दव्वे भावे य सरीर-संपया छव्विहा य भावंमि | दव्वे खेत्ते काले भावम्मि य संगह परिण्णा ॥ २९ ॥ जह गय-कुल- संभूओ गिरि-कंदर कडग-1 -विसम- दुग्गेसु । परिवहइ अपरितंतो निअय- सरीरुग्गए दंते ||३०|| तह पवयण भत्ति गओ साहम्मिय- वच्छलो असढ-भावो । परिवहइ असहु-वग्गं खेत्त - विसम - काल - दुग्गेसु ॥३१॥ || गणिणिज्जत्ती समत्ता ४ ॥
चू०-सो रातिणितो केरिसो ? जो इमाए अट्ठविधाए गणिसंपदाए उववेतो । एतीसे उवक्कमादी चत्तारि दारा वण्णेऊण अधिगारो गणिसंपदाए, नामनिप्फन्नो निक्खेवो, गणि-संपदा दुपदं नाम, गणी संपदा च गणि-संपदा, गणी गुणेहिं संपन्नो उववेतो युक्त इति ।
तत्थ गणिस्स निक्खेवो नामादि चउव्विहो । नामट्टवणातो तथैव । दव्वं सरीर-भवितो० गाथा २५ ॥
दव्वं सरीर-भविओ भावगणी गुण-समनिओ दुविहो । गण-संगहुवग्गह-कारओ अ धम्मं च जाणतो ॥१॥
दव्वगणी जाणग - सरीर भविय - वतिस्तिो तिविधो एगभवितो बद्धाउतो अभिमुह-नामगोत्तो । भावगणी गुण - समनितो गुणोववेतो अट्ठविधाए गणिसंपदाए । सो दुविधो-आगमतो नोआगमतो य आगमतो जाणय-उववुत्तो । नोआगमतो गणसंगह-कारतो उवग्गह-कारतो य । संगृह्णातीति संग्रहः । संग्रहं करोतीति संग्रह-कारकः सयं परेण वा । दव्वसंगहो वत्थादीहिं, सिस्से संगिति भावे नाणादीहिं । उपगृह्णातीति उपग्रहः उपग्रहं करोति सिस्स पतिच्छयाणं सयं परेण वा । दव्वुवग्गहो आहारादीहिं, भावुवग्गहो गिलाणादीण सारक्खणं । . धम्मं च जाणतो । कतरं धम्मं ? गणिस्वभावमित्यर्थः । अट्ठविहा गणिसंपदा, aaaaad २७ sadddd

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