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चैत्य वन्दन
परमातम परमेसरु, सिद्ध सयल भगवान, मति ज्ञान पामी करी, केवल लक्ष्मी निधान...६...
श्रुतज्ञान नु चैत्यवन्दन
श्रीश्रुतज्ञान ने नित्य नमो, स्वपर प्रकाशक जेह, जाणे देखे ज्ञान थी, श्रुत थी टले संदेह...१ .. अनभिलाप्य अनंत भाव, वचन अगोचर दाख्या, तेह ने भाग अनंत में, वचन पर्याये आख्या...२... वली कथनीय पदार्थ नो, भाग अनंतमो जेह, चौदे पूरवमां रच्यो, गणधर गुण ससनेह...३... माहोमांहे पूरवधरा, अक्षर लाभे सरीखा, छठाणवडोया भाव थी, तेश्रत मतिय विशेषा.. तेहिज माटे अनंत में, भाग निबद्धा वाचा, समकित श्रुतना मानीये, सर्व पदारथ साचा...५... द्रव्य गुण पर्याये करी, जाणे अंक प्रदेश, जाणे ते सवि वस्तु ने, नंदीसूत्र उपदेश...६... चोवीश जिननां जाणीओ, चौद पूरवधर साध, नवशत तेत्रोश सहस छे, अठ्ठाणु निरुपाध...७... परमत अकांत वादीना, शास्त्र सकल समुदाय, ते समकितवंते ग्रह्या, अर्थ यथारथ थाय...८... अरिहंत श्रुत केवलो कहे, ज्ञानाचार चरित्त, श्रुत पंचमी आराधवा, विजय लक्ष्मो सूरि चित्त...६...
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