Book Title: Chaityavandan Parvamala
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 70
________________ [६६] चंत्यवन्दन - - - इषु कृति मान कषायथी अ, रहित लेश सुचिवंत, जीव चरित्तकं हीरधर्म, नमन करत नित संत...३.. तप पद नु चैत्यवन्दन [१८] श्री ऋषभादिक तोर्थनाथ, तद्भव शिव जाण, बिहि अंतैरपि बाह्य मध्य, द्वादश परिमाण...१... वसु कर मति आमोसहि, आदिक लब्धि निदान, भेदे समतायुत खिणे, दृगधन कर्म वितान...२... नवमे श्री तपपद भलो, इच्छा रोध सरूप, वंदनसे नित होरधर्म, दूर भवतु भवकूप...३... * सिद्ध ना चैत्यवंदनो [१] सिद्ध सकल समरू सदा, अविचल अविनाशी, थाशे ने वळी थाय छे, थया अडकर्म विनाशी...१... लोकालोक प्रकाश भास, कहेवा कोण शूरो, सिद्ध बुद्ध पारंगत, गुणथी नहीं अधूरो...२... अनंत सिद्ध अणीपेरे नमुं, वळी अनंत अरिहंत ज्ञानविमल गुण संपदा, पाम्या ते भगवंत...३... [२] अज अविनाशी अकल जे, निराकार निराधार, निर्मम निर्भय जे सदा, तास भक्ति चित्त धार... जन्म जरा जाकं नही, नही शोक संताप, सादि अनंत स्थिति करी, बंधन रुचि काप...२... त्रीजे अंश रहित शुचि, चरम पिंड अवगाह, अक समे सम श्रेणिओ, अचल थणो शिवनाह...३... * दितीय सिद्ध पद ने आश्रीने आ चैत्यवंदन आप्या छे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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