Book Title: Chaityavandan Parvamala
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Abhinav Shrut Prakashan

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Page 55
________________ पर्वमाला [५१] [५] जो धुरि सिरि अरिहंत मूल, दृढ पीठ पइट्ठिओ, सिद्ध सूरि उवज्झाय साहू, चिहुँ साह गरिठ्ठिओ...१ दंसण नाण चरित्त तव ही, पडीसाहा सुंदरू, ततक्खर सरवग्ग लद्धि, गुरु पय दल दूंबरू...२ दिसिपाल जक्ख जक्खिणि, पमूह सुरकुसुमेहिं अलंकिओ, सो सिद्धचक्क गुरु कप्प तरु, अम्ह मनवंछिय फल दीओ..३ श्री सिद्धचक्र आराधतां, सुख सम्पत्ति लहोओ, सुरतरु ने सुरमणी थकी, अधिकज महिमा कहीजे...१... अष्ट कर्म हाणो करी, शिव मंदिर रही, विधिशुं नवपद ध्यानथी, पातिक सवि दहीओ...२... सिद्धचक्र जे सेवशे, अकमना नर नार, मनवांछित फळ पामशे, ते त्रिभुवन मोझार... अंग देश चंपा पुरी, तस केरो भूपाल, मयणा साथे तप तपे, ते कुंवर श्रीपाल... सिद्धचक्रना न्हवणथी, जस नाठा रोग, तत्क्षण त्यांथी ते लहे, शिवसुख संजोग...५... सातसे कोढी होता, हुआ निरोगी जेह, सोवन वाने झलहले, जेहनी नीरूपम देह...६... तेणे कारण तमे भविजनो, प्रह उठी भक्ते, आसो मास चैत्र थकी, आराधो जुगते...७ .. सिद्ध चक्र त्रण कालना, वंदो वली देव, पडिकमणुं करी उभयकाल, जिनवर मुनि सेव...... । भक्त , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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