Book Title: Bhuvanbhanu Kevali Charitram
Author(s): Indrahans Gani
Publisher: Vitthalji Hiralal Hansraj

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Page 8
________________ चरित्रं 15 // 6 // जिE EMIERREEMEDIE / परापरविभागेन / निर्मुक्तं शाश्वतं महत् // पुरं लोकोदरं नाम / समस्ताश्चर्यमंदिरं // 2 // युग्मं // नासो | वों न सा जाति-नं तद्गोत्रं न तत्कुलं // न तत्पुण्यं न तच्छिल्पं / न सा विद्या न तद्वनं // 3 // न तद्रत्नं न सा नीति-नस धर्मो न कर्म तत // विलासाश्चारुनेपथ्यं / व्यवहारक्रिया न सा // 4 // | नाटकं च न तत्कापि / यत्तत्र न समीक्ष्यते // किंचात्र कथ्यतेऽस्माभिः। पुरं सर्वमयं हि तत् // 5 // | त्रिभिर्विशेषकं // सदात्र कटके द्वे च / धर्मपापात्मके स्थिते // अनंतेऽन्योन्यमत्यर्थं / विरुद्धे च महाबले | // 6 // नेतात्र पापसैन्यस्य / वशीकृतजगत्त्रयः // अहितः सर्वभूतानां / मोहराजो महीपतिः // 7 // त-न थाहि-शकानप्यसौ वर्तयति निजाज्ञायां, चक्रिणोऽपि प्रवर्तयति स्वनिर्देशे, किंकरयति समस्तराजकं, दासतां नयत्यमात्यष्टिसार्थवाहादीन् प्राकृतजनांश्च. ततो जनयत्यदेवेष्वपि देवबुद्धिं, अगुरुष्वपि गुरुमति, अतत्वेष्वपि तत्वाध्यवसायं, कारयत्यवस्तुषु महाप्रतिबंध, योजयति सर्वथैवासत्कृत्यपक्ष, प्रवर्तयति महा| पापक्रियासु, कारयति हिंसां, जल्पयत्यलीकानि, ग्राहयत्यदत्तानि, सेवयति परकलत्राणि, संयोजयति महारंभपरिग्रहेषु, जनयति महागृद्धी रात्रिभक्तेषु, क्षिपति क्रोधमहाज्वलने, अवष्टंभयति मानशिलानिचयेन, दंशयति दुष्टमायाभुजंगीमुखेन, पातयति लोभमहासागरे, बध्नाति पुत्रादिप्रेमबंधपाशैः, नियंत्रयति // 6 //

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