Book Title: Bhasha Rahasya Author(s): Yashovijay Maharaj, Publisher: Divyadarshan Trust View full book textPage 9
________________ चारों भाषाओं में आराधकत्व रहेगा। इसके लिए प्रज्ञापना सूत्र " का सबल प्रमाण पेश किया है। इस पाठ का तात्पर्य यह है कि आयुक्त परिणामपूर्वक चारों भाषाओं को बोलनेवाला आराधक है। आयुक्त का, शास्त्रविहितपद्धति से जिनशासन की अपभ्राजना को दूर करने के प्रयोजन से बोलना, संयमरक्षा आदि के लिए बोलना अर्थ है। • प्रज्ञापना में तो चारों भाषाओं को आयुक्ततापूर्वक बोलने पर आराधक कहा है। परन्तु "दसवैकालिक सूत्र के सप्तमाध्ययन की प्रथमगाथा में तो मृषा एवं मिश्रभाषा बोलने का निषेध किया गया है। अतः बाह्यदृष्टि से विरोध सा भासित होता है। उपाध्यायजी ने उपर्युक्त "विरोधाभास का कुशलतापूर्वक समाधान करते हुए बताया है कि दश सूत्र का कथन औत्सर्गिक है तथा प्रज्ञापनासूत्र का वचन आपवादिक है अता अपवाद से चारों भाषाओं को बोलने पर भी उत्सर्ग अबाधित रहता है। इस प्रकार अनेक विशेषताओं से यह ग्रन्थ अलङ्कृत है। 'कलिकाल श्रुतकेवली' का प्रस्तुत ग्रन्थ तो साक्षात् अत्युत्तम रत्नस्वरूप ही है। इसकी विशेषताओं का वर्णन करने बैठ जाऊं तो 'संशोधकीय वक्तव्य' के स्थान पर दूसरा ग्रन्थ ही तैयार हो जाए। अतः वाचकवर्ग इस ग्रंथ का अध्ययन कर के स्वयं आस्वादन करें ऐसी आशा रखता हूँ। ( ३. मोक्षरत्ना टीकाकार) गंगा, जमुना एवं सरस्वती के सङ्गमस्थल प्रयाग से आप परिचित हैं। परन्तु अभिनव प्रयाग से शायद अपरिचित होंगे...!!! वे हैं... ज्ञान गंगा, तपो यमुना एवं सृजन की सरस्वती के संगम स्थल से निर्मित अभिनव प्रयाग के रूप में उदीयमान प्रस्तुत ग्रंथ के 'मोक्षरत्ना' नामक टीका के कर्त्ता... विद्वद्वर्य श्रीयशोविजयजी म....। . टीकाकार के अद्भूत ज्ञान एवं विशिष्ट तप-त्याग के सङ्गम को देख कर मस्तक झुक जाता है एवं मस्तिष्क में विशिष्ट ज्ञानी एवं परमत्यागी तपस्वी... सारस्वतसूनु षड्विकृतित्यागी आचार्यदेव श्रीमद्विजय बप्पमट्टसूरीश्वरजी म. सा... प. पू. सिद्धान्तमहोदधि सच्चारित्रचूडामणि प्रेमसूरीश्वरजी म. सा. एवं वर्धमानतपोनिधि न्यायविशारद आचार्यदेव श्रीमद्विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. आदि की स्मृतियाँ मानसपट्ट पर उभरने लगती है । ज्ञानगंगा केवल ७ वर्ष के दीक्षा पर्याय में इतनी उत्तमश्रेणि की सर्वांगीण विद्वता हांसिल करना दुष्कर कार्य है टीका के अवलोकन से T पता चलता है कि टीकाकार मे न्याय, व्याकरण, जिनागम, परसिद्धान्त आदि का सूक्ष्म परिशीलन किया है। इस टीका के पठनपाठन द्वारा चिंतन और मनन करनेवाले विद्वानों को टीकाकार की विद्वत्ता का स्वयमेव ख्याल आ जाएगा । मोक्षरत्ना टीका में टीकाकार के न्याय एवं दर्शनशास्त्र के न्यायभूषण, न्यायकन्दली न्यायलीलावती, चिंतामणि, प्रशस्तपादभाष्य, सांख्यतत्त्वकौमुदी, प्रमाणवार्तिक, वेदान्तदीप, निम्बकभाष्य मीमांसाकुतूहल, तत्त्वोपप्लवसिंह, प्रमेवरत्नमाला, ब्रह्मसूत्र, न्यायसिद्धान्तदीप आदि ग्रन्थों का, जैन न्याय के सम्मतितर्क, स्याद्वादमञ्जरी, स्याद्वादकल्पलताटीका, अष्टसहस्रीतात्पर्यविवरण, सप्तभद्गीतरंगिणी, शास्त्रवार्तासमुच्चय आदि ग्रन्थों का, भगवतीसूत्र आवश्यकनिर्युक्ति, सामाचारी प्रकरण, उपमितिभवप्रपञ्चा आदि जैनागम तथा जैन ग्रन्थों का, दिगम्बरीय बृहद्द्द्रव्यसंग्रह, धवला, प्रवचनसार आदि का हलायुधकोश, सिद्धहेमशब्दानुशासनम्, अमरचंद्रशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति आदि व्याकरण एवं कोश का, तथा चरकसंहिता, चाणक्यसूत्र आदि ग्रन्थों का निर्देश देख कर टीकाकार की सर्वतोमुखी प्रतिभा झलक उठती है। वर्तमान के विज्ञानयुग में न्यायग्रंथों को पढ़नेवाले अल्प होते हैं, उनमें भी न्यायग्रन्थों को पढ़ कर उन्हें बराबर समझ कर, प्राचीन उद्भट तार्किकों के मतों का निराकरण करना विशिष्ट क्षयोपशम के बिना साध्य नहीं है जैसे गाथा नं. २९ की टीका में टीकाकार ने एकान्तवादी की जबरदस्त समीक्षा की है। इस समीक्षा में ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, निम्बार्कभाष्य, निम्बार्कभाष्यटीका, वेदान्तदीप, भामती, न्यायभूषणकार, श्रीकण्ठभाष्य हेतुबिन्दुटीका प्रमाणवार्तिक, कल्पतरुकार, जितारि, बलदेव, राधाकृष्ण, दामोदर, हिरियन्ना, श्रीकण्ठभाष्यटीका, विज्ञानामृतभाष्य की सप्तभङ्गीतरंगिणी स्वयम्भूस्तोत्र, वादमहार्णव, अष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरणं, आप्तमीमांसा, पञ्चास्तिकायवृत्ति, स्याद्वादकल्पलता, न्यायभाष्यकार, अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका, कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि ग्रन्थों १२. दो न भासिज्ज सव्वसो (दश. अ. ७/गा.?) १३. अतः एव "दो न भासिज्ज सव्वसो इत्यस्यापि न विरोधः अपवादतस्तद्भाषणेऽप्युत्सर्गानपायात् । (vi)Page Navigation
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