Book Title: Bharat ke Prachin Rajvansh Part 01
Author(s): Vishveshvarnath Reu, Jaswant Calej
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya
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१३२९ मेंसे २९३ निकालें तो क्रमशः ११६२ और १०३६ बाकी रहते हैं । परन्तु एक तो वि० सं० और श० सं० का आपसका अन्तर १३५ है और ऊपर लिखे दोनों संवतोंका अन्तर १२६ ही आता है । दूसरा पहले लिखे अनुसार अगर लक्ष्मणसेन संवत्का प्रारम्भ वि० सं० ११७६ और श० सं० १०४१ में मानें तो इन दोनों ( वि० सं० ११६२ और श० सं० १०३६) में क्रमशः १४ और ५ का फर्क रहता है । इसलिये विद्यापतिके लेखके संवत् ठीक नहीं हो सकते । लक्ष्मणसेन संवत् २९३ में अकबरनामेके अनुसार विक्रमसंवत् १४६९ और श० सं० १३३४ और द्विजपत्रिकाके लेखसे वि० सं० १४५६ और श० सं० १३२१ होते हैं।
ऊपरके लेखमें सन् ८०७ के पहले सनका नाम नहीं दिया है । अगर इसको हिजरी सन मानें तब भी वि० सं० १४५५ में हि० सं० ८०० था ८०७ नहीं । इससे जाहिर होता है कि आरा नागरीप्रचारिणीसभाकी पत्रिकामें इन बातों पर गौर नहीं किया गया है
मग या शाकद्वीपीय ब्राह्मण । सेनवंशके इतिहासमें मग या शाकद्वीपीय ब्राह्मणोंका भी वर्णन आगया है । राजपूतानेके सेवक और भोजक जातिके लोग अपनेको ब्राह्मण कहते हैं । परन्तु जैनमन्दिरोंकी सेवा करने और ओसवाल बनियोंकी वृत्तिके कारण उनके घरकी रोटी खानेसे दूसरे ब्राह्मण उनको अपने बराबर नहीं समझते । जब संवत १८९१ की मरदुमशुमारीके पीछे मारवाड़की जातियोंकी रिपोर्ट लिखी गई थी तब सेवकोंने लिखवाया था कि-" भरतखण्डके ब्राह्मण तो भुदेव हैं और सूर्यमण्डलसे उतरे हुए मग ब्राह्मण शाकद्वीपके रहनेवाले हैं । यहाँके ब्राह्मण मन्दिरोंकी पूजा नहीं करते थे। इसीलिये अपने बनवाये सूर्यके मन्दिरकी पूजा करनेके वास्ते कृष्णका पुत्र साम्ब शाकद्वीपसे कई मग ब्राह्मणोंको लाया था और उनका विवाह भोज जातिकी कन्याओंसे करवाके यहाँके ब्राह्मणोंमें मिला दिया था । इससे हमारा नाम सेवक
और भोजक पड़ गया । नहीं तो असलमें हम शाकद्वीपीय ब्राह्मण हैं, और सूरजके बेटे ज़रशस्तसे हमारी उत्पत्ति हुई है तथा आदित्यशर्मा हमारी उपाधि है । इसके प्रमाणमें हस्तलिखित भविष्यपुराणके ये श्लोक हैं:
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