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12 | भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ (कर्नाटक)
है। उसका उदय भारत के हृदय-प्रदेश में हुआ था किन्तु उसका प्रभाव देश के समस्त भागों में फैल गया। तमिल प्रदेश के बहुत प्राचीन साहित्य के बहुत कुछ अंश का मूल जैन है। कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान के सुन्दर जैन मन्दिर और मूर्तियों सम्बन्धी स्मारक तो विश्वप्रसिद्ध हैं।" ।
"कुछ इतिहासकार भारत के सांस्कृतिक तथा राजनीतिक विकास को संकीर्ण धार्मिक समूहों में वर्गीकृत करने की प्रवृत्ति रखते हैं। किन्तु यदि थोड़ा-सा भी विश्लेषण किया जाए तो यह बात सामने आएगी कि भारतीय संस्कृति का उत्तरोत्तर विकास अब अनेक धाराओं के संगम से हुआ है जिसने कि एक विशाल महानद का रूप ले लिया है।"
इन उद्धारणों से यह स्पष्ट है कि कर्नाटक में जैनधर्म की स्थिति पर विचार के लिए सबसे पहली आवश्यकता है निष्पक्ष दृष्टि और गहरे अध्ययन-मनन की।
दूसरी आवश्यकता इस बात की भी है कि कर्नाटक में जैनधर्म के अस्तित्व का निर्णय केवल शिलालेखों या साहित्यिक सन्दर्भो के आधार पर ही नहीं किया जाए और न ही यह दृष्टि ही अपनाई जाए कि शिलालेख आदि लिखित प्रमाणों के अभाव में जैनधर्म का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया जा सकता । वास्तव में हमारे देश में मौखिक परम्परा बहुत प्राचीन काल से सुरक्षित रही आई है। जो कुछ प्राचीन इतिहास हमें ज्ञात होता
वह या तो मौखिक परम्परा से या फिर पुराणों के रूप में रहा है। ये पुराण जैन भी हैं और वैदिकधारा के भी। इनमें कहीं तो महापुरुषों की महत्त्वपूर्ण घटनाओं के विवरण हैं तो कहीं संकेत मात्र । ये भी सुने जाकर ही लिखे
हैं। यदि इन्हें सत्य नहीं माना जाए तो रामायण या महाभारत अथवा राम या कृष्ण सबका अस्तित्व अस्वीकार करना होगा और तब तो किसी तीर्थंकर का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं हो सकेगा । अतः आइये, हम भी परम्परागत या पौराणिक इतिहास पर एक दष्टि डाले।
परम्परागत इतिहास प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने कर्मयुग की सष्टि की थी और इस देश की जनता को कृषि करना सिखाया था। वे प्रथम सम्राट भी थे। जब उन्होंने राज्य की नींव डाली, तब उन्होंने ही इस देश को मण्डलों, पुरों आदि में विभाजित किया था। इस देश-विभाजन में कर्णाट देश भी था। ऋषभदेव ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि (ब्राह्मी) का ज्ञान दिया था । उसी लिपि से कन्नड़ लिपि के कुछ अक्षर निकले हैं। जब वे मुनि हो गए तो उन्होंने सारे देश में विहार किया और लोगों को धर्म की शिक्षा दी। भागवतपुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि उनके धर्म का प्रचार कर्णाट देश में अधिक हुआ था (देखिए 'श्रवणबेलगोल' प्रकरण में 'ऋषभदेव')।
चक्रवर्ती भरत-ऋषभदेव के पुत्र के नाम पर यह देश भारत कहलाता है। जैन पुराणों के अतिरिक्त वैदिकधारा के चौदह पुराण इस तथ्य का समर्थन करते हैं। वैदिक-जन आज भी 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे.."का नित्य पाठ करते हैं । भरत ने छह खण्डों की दिग्विजय की थी। उनके समय में भी कर्नाट देश में जैनधर्म का प्रचार था।
ग्यारह और चक्रवर्ती-जैन परम्परा के अनुसार भरत के बाद ग्यारह चक्रवर्ती और हुए हैं। ये जैन धर्मावलम्बी थे और उनका समस्त भारत पर शासन था।
किष्किन्धा के जैन धर्मानुयायी विद्याधर-बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के तीर्थकाल में रामायण की