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चतुर्थः सर्गः
पहुंच चुका है। उसका जगत् में स्वेच्छापूर्वक संचरण हो ।
७७. तव पार्थिव ! चक्रमुल्वणं पुरतो भावि यदा तदासितुम् ।
परिपन्थिगणः कथं विभुः
प्रणवो' मन्त्रपुरो हि पापहृत् ॥
"
७८.
,
राजन् ! जब आपके आगे-आगे प्रदीप्त चक्र ( या सेना ) चलेगा तब शत्रु- समूह उसके सामने कैसे टिक पाएगा ? क्योंकि मंत्र के आगे चलने वाला ओंकार पाप को हरनेवाला होता है ।
७६.
इति तस्य गिरा रणोत्सव द्विगुणोत्साहविवृद्धमत्सरः ।
न हि किञ्चिदुवाच चक्रभृत्, श्रितमौनो हि नृपोर्थसिद्धये ॥
सेनापति की बात से भरत के रणोत्सव का उत्साह द्विगुणित हो गया, उनका क्रोध प्रचंड हो उठा । उन्होंने कुछ नहीं कहा। क्योंकि राजा कार्य की निष्पत्ति के लिए मौन ही रहता है ।
इति नृपतये सेनाधीशोपर्युदीर्य वचोभरं, रणरतिरसोल्लासोद्रेको द्भवत्पुलकाङ्कुरम् । श्रमदसकृत्तुष्टस्तस्मिन् विशिष्य नृपोंप्यसौ, भवति नृपतेर्मान्यः पुण्योदयेन हि सेवकः ||
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सेनापति सुषेण चक्रवर्ती भरत को सारी बातें बार-बार निवेदित कर विरत हो गया । उसके वे वचन युद्ध-प्र ेम के स्वाद के उल्लास से ओत-प्रोत और रोमाञ्चित करनेवाले थे । महाराज भरत भी अनेक बार उसके कार्य से तुष्ट होकर उसे विशिष्ट किया था, सम्मान दिया था। क्योंकि पुण्य के उदय से ही सेवक राजा (स्वामी) के लिए मान्य होता है ।
इति उत्साहोद्दीपनो नाम चतुर्थः सर्गः
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१. प्रणवः - ओंकार (ओंकारप्रणवौ समौ - अभि ० २।१६४ ।) २. रणोत्सव
" - रणोत्सवेन द्विगुणो य उत्साहः - प्रागल्भ्यं तेन विवृद्धो मत्सरो यस्य सः ३. अर्थसिद्धये – कार्यनिष्पत्तये ।
४. रणरति रणे – संग्रामे, रतिः - रागस्तस्य रसः स्वादस्तस्योल्लासः - चित्ताभिप्रायविशेषः, तस्योद्रेक — आधिक्यं तेन उद्भवन्त – उत्पद्यमानाः, पुलकाङ्कुराः - यस्माद् असौ, तं ।
- रोमकंटकाः,