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दशमः सर्गः .
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'मुने ! शान्तरस का सूर्य आपकी चित्तवृत्ति रूपी उदयाचल को प्राप्त कर उदित होता है । इसलिए हमारे हृदय-कमल आपके दर्शन मात्र से विकसित हो जाते हैं।'
४८. त्वमेव साधो ! समलोष्टरत्नः , स्त्रैणे तृणे साम्यमुपैषि शश्वत् ।
तत् सिद्धिवध्वां भवतोभिलाषः , संसिद्धिमेष्यत्यचिराद् भवेऽस्मिन् ॥
'मुने ! आप पत्थर और रत्न तथा स्त्री और तृण में सदा समभाव रखते हैं। इसीलिए इसी भव में सिद्धि-रूपी वधू को वरण करने की आपकी अभिलाषा शीघ्र ही पूरी हो जाएगी।'
४६. गीर्वाणनाथादपि सार्वभौमात् , सुखं मुनेरभ्यधिकं जगत्याम् ।
___ गवां प्रपञ्चं त्विति तीर्थनेतुः , पिबामि पीयूषमिवेन्दुबिम्बात् ॥
'इस संसार में मुनि का सुख इन्द्र और चक्रवर्ती के सुख से भी अधिक है। इसलिए मैं तीर्थनाथ ऋषभ की वाणी के विस्तार का उसी आदर से पान करता हूँ जैसे चन्द्रमा के अमृत का पान किया जाता है।'
५०. इच्छामि चर्या भवतोपपन्नां , कर्माणि मे नो शिथिलीभवन्ति । ... • तैरेव बद्धो लभतेऽत्र दुःखं , जीवस्तु पाशैरिव नागराजः ॥
'मुने ! मैं आप द्वारा स्वीकृत चर्या को पाना चाहता हूँ, किन्तु मेरे कर्म शिथिल नहीं हो रहे हैं। जैसे बंधनों से बँधा हुआ हाथी दुःख पाता है वैसे ही कर्मों से बँधा हुआ संसारी जीव ससार में दुःख पाता है।'
५१. यतोऽत्र सौख्यं तत एव दुःखं , यतोऽत्र रागस्तत एव तापः ।
. यतोऽत्र मैत्री तत एव वैरं , तत्सङ्गिनो ये न त एव धन्याः ।।
'मुने ! इस संसार में जो सुख के कारण हैं, वे ही दुःख के कारण हैं, जो राग के हेतु हैं, वे ही ताप के हेतु हैं और जो मैत्री के कारण हैं, वे ही वैर के कारण हैं। जिनके ये सब नहीं हैं, वे ही इस संसार में धन्य हैं।'
५२. कोपानलः क्षान्तिजलेन कामं , निर्वापितो मार्दवसिंहनादात् ।
मदद्विपः शाठ्यतरुस्त्वदम्भपरश्वधेनादलि' लोभमुक्त ! ॥
१. स्त्रणं-स्त्रीणां समूहः।। २. परश्वधः–परशु (परश्वधः स्वधितिश्च–अभि० ३४५०)