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भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ७४. अथोत्सुकः पूर्वनियुक्तचारावलोकनायाऽवनिचक्रशक्रः ।
तत्राशस्त पाथोधिरिव स्वकीयस्थितिक्रमे प्लावितभूतलोऽपि ॥
चक्रवर्ती भरत अत्यन्त उत्सुकता से पूर्व नियुक्त गुप्तचरों की बाट देखते हुए उस उद्यान में उसी प्रकार स्थित हो गए जैसे भूतल को प्लावित करता हुआ समुद्र अपनी मर्यादा में स्थित होता है।
७५. अनयदिह कियन्ति स्फारकीतिदिनानि ।
क्षितिपतिरथ बन्धोः किंवदन्तीर्बुभुत्सुः । चरवदनसरोजात् पोनपुण्योदयाढ्यः । कलितललितलक्ष्मीलक्ष्यलावण्यलीलः ॥
अपने भाई बाहुबली के वृत्तान्त को गुप्तचरों के मुख-कमल से जानने की जिज्ञासा से महान् यशस्वी भरत ने उस उद्यान में कई दिन बिताए । वे पुष्ट धर्म के धनी और मनोज्ञ लक्ष्मी के लक्ष्य रूपी लवणिमा की लीला के ज्ञाता थे।
-इति सचैत्योद्यानाभिगमो नाम वशमः सर्गः
१. अवनिचक्रशक्र:-राजा भरतः। २. स्वकीयस्थितिक्रमे-आत्मीयमर्यादानुक्रमे। ३. बुभुत्सुः-बोटुमिच्छुः।