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. . भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् 'देवगण ! क्या आप यह जानते हैं कि छल-बल में प्रवीण मेरे इस भाई भरत ने ही मुझे ज्यों-त्यों युद्ध करने के लिए वैसे ही प्रेरित किया है जैसे प्रलय के लिए यमराज को प्रेरित किया जाता है ?'
५३. वेत्त्ययं च बलवानहमेको , यन्मयैव वसुधेयमुपाता।
देवसेव्यचरणोऽहमिदानीमित्यहं कृतिवशात् परिपुष्टः॥
वह जानता है—'इस धरती पर मैं ही एक पराक्रमी हूँ। यह भूमी मैंने ही प्राप्त की है । अब मैं देवताओं द्वारा उपास्य हूँ इसलिए भाग्यवश परिपुष्ट हूँ।' .. " ५४. मत्कनिष्ठसहजक्षितिचक्रादानतः किमपि मानमुवाह।
__ एष सम्मदमशेषमतोऽहं , सङ्गरे व्यपनयामि विशेषात् ॥
'मेरे सहजात छोटे भाइयों के राज्यों को प्राप्त करने से इसके मन में कुछ अहं आ गया है इसलिए मैं इसके सारे अहं को विशेष रूप से संग्राम में नष्ट कर दूंगा।''
५५. अस्य लोभरजनीचर'चारैानशे हृदयमत्र न शङ्का।
तोष एव सुखदो भुवि लीलाराक्षसा हि भयदाः पृथुकानाम् ॥
'देवगण ! इसमें कोई शंका नहीं है कि मेरे भाई भरत का हृदय लोभ रूपी राक्षसों से भर गया है। संसार में संतोष ही सुखदायी होता है । बालकों के लिए क्रीडा-राक्षस भी भयप्रद होते हैं तो भला लोभ रूपी राक्षस भयप्रद क्यों नहीं होंगे ?'
५६. लौल्यमेति हृदयं हि यदीयं, तस्य कस्तनुरुहः सहजः कः ।
वृद्धिमेति विहरन् जलराशौ , संवरः स्वककुलाशनतो हि ॥ 'जिसका मन लोभ से भरा हुआ है, उसके लिए कौन पुत्र और कौन भाई ? समुद्र में विहरण करता हुआ मत्स्य अपने कुल की मछलियों का भक्षण करके ही वृद्धिंगत होता है, ऐसे नहीं।'
५७. संयता सह मया किमवाप्यं , सौख्यमत्र भरतक्षितिराजा।
जीवितुं क इहेच्छति किञ्चित् , कालकूटकवलीकरणेन ?
'मेरे साथ संग्राम कर महाराज भरत कौन सा सुख पा लेंगे ? कालकूट विष का भक्षण कर कौन व्यक्ति जीने की इच्छा कर सकता है ?'
१. रजनीचर:-राक्षस। २. संवर:-मत्स्य (संवरोऽनिमिषस्तिमि:-अभि०४४१०)