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सप्तदशः सर्गः
उस समय भयभीत देवांगनाओं के नूपुरों के शब्दों से आकाशमार्गों के अन्तराल मुखरित हो रहे थे। वे दौड़ो-दौड़ी अपने प्रियतमों के पास गई और उनके गलों से गाढ-रूप में लिपट गईं। वह युद्ध देवताओं के लिए एक उत्सव (क्रीडा-काल) की भांति उपस्थित हुआ।
२८. मूर्छाला त्रिदशवधूः पपात काचित् , संसिक्ताप्यमृतभरर्मुहुः प्रियेण ।
चैतन्यं न च लभतेस्म विप्रयोगी , गीर्वाणो गरमिति संगरं तदावेत् ॥ कोई देवांगना मूच्छित होकर भूमी पर गिर पड़ी। उसके प्रियतम देव ने बार-बार अमृत का सिंचन किया फिर भी उसकी मूर्छा नहीं टूटी, उसमें चेतना नहीं आई। उस समय विरही देवता ने युद्ध को विष के समान समझा.।
२६. एणाक्षी कथमपि विश्लथाङ्गमारात् , सम्भ्रान्ता करतलधारिता पतन्ती।
मा भैषीस्तव सविधे समागतोऽहमाश्वास्येति च दयितेन धाम नीता ॥
कोई संभ्रान्त सुन्दरी शिथिल होकर पति के पास ही भूमी पर गिर रही थी तब उसके प्रियतम ने उसे हाथ से थामते हुए कहा-'प्रिये ! तू डर मत, मैं तेरे पास आ गया हूं।' इस प्रकार से आश्वस्त कर वह उस प्रियतमा को घर ले गया।
३०. मातङ्गः परिजहिरे निषादियन्त्रा', उन्मत्तैरिव गुरुराजसम्प्रदायाः।
उद्दामत्वमधिकृतं तुरङ्गमैश्च , प्रालेय 'रिव शिशिरर्तुमाकलय्य ॥
जैसे उन्मत शिष्य गुरु की आम्नाय को छोड़ देता है वैसे ही हाथियों ने महावतों के अंकुश को छोड़ दिया । जैसे शिशिर ऋतु को प्राप्त कर हिमपात उद्दाम हो जाता है वैसे ही घोड़े भी उच्छृखल हो गए ।
३१. . अत्युच्चः परिरटितं च वेसरौघैः , कोनाश रिव पितृकाननं समेत्य ।
आक्रन्दैरपि करभैर्जगत् प्रपूर्ण , विस्तीर्णरिव महतां यशःसमूहैः ॥ 'जैसे श्मशान में जाकर राक्षस जोर-जोर से चिल्लाते हैं वैसे ही खच्चरों के समूह भी बहुत जोर से चिल्लाने लगे। जैसे महान् व्यक्तियों के विस्तीर्ण यश-समूह से जगत् भर जाता है वैसे ही ऊंटों ने अपने शब्दों से जगत् को भर दिया।
१. निषादियन्त्रः--अंकुश। २. प्रालेयम्-हिमपात (प्रालेयं मिहिका हिमम्-अभि० ४।१३८) ३. वेसरः-खच्चर (वेसरोऽश्वतर:-अभि० ४।३१९) ४. कीनाशः-राक्षस (कीनाशरक्षोनिकसात्मजाश्च-अभि० २।१०१) ५. पितृकाननम्–श्मशान (श्मशान करवीरं स्यात् पितृप्रेतादनं गृहम --अभि० ४।४४)