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द्वादशः सर्गः . ५६. शार्दूलमुख्या इतरेऽपि पुत्राः , पवित्रगोत्रा'स्तव सन्ति राजन् !।
यदीयबाणासन'मुक्तबाणास्तीक्ष्णांशुतप्तं शमयन्ति विश्वम् ।
'राजन् ! आपके पवित्र वंश वाले शार्दूल आदि दूसरे अनेक पुत्र हैं । धनुष्य की डोरी से छूटे हुए उनके बाण सूर्य से संतप्त विश्व को भी शान्त कर देते हैं।'
५७. विद्याधरेन्द्रास्त्वनवद्यविद्या , रणाय वैताढ्यगिरेः समेताः।
सेवाकृते ते बहुशो विमानः , सुरा इवेन्द्रस्य ततोत्सवस्य ।
"आपकी सेवा करने के लिए पवित्र विद्याओं के ज्ञाता विद्याधरों के स्वामी अपने अनेक विमानों को लेकर युद्ध के लिए वैताढ्य गिरि से आए हुए हैं। जैसे विशाल उत्सव वाले इन्द्र के लिए देव आते हैं।'
५८. उदीच्यवर्धमहीभृतोऽपि , त्वामन्वयुस्ते समरोत्सवाय ।
सेवां यदीयां रचयन्ति नित्यं , संयोज्य पाणीस्त्रिदशा अपीह ॥
'राजन् ! इस युद्धोत्सव में भाग लेने के लिए उत्तर क्षेत्रार्ध के राजे भी आपके पीछेपीछे आए हैं । देवता भी हाथ जोड़कर उन राजाओं की सदा सेवा करते हैं।'
५९. षटखण्डदेशान्तनिवासिनोऽमी' , एयः किराताः कृतपत्रिपाताः।
भवन्तमुत्खातविपक्षवृक्षा , मदोत्कटं नागमिव द्विरेफाः ॥
'ये छह खण्डों के सीमान्तवासी किरात आपके चरणों में अपने बाणों को न्योछावर कर आपके पास आए हुए हैं । जैसे भौंरें मदोन्मत्त हाथी को उखाड़ देते हैं, विचलित कर देते हैं, वैसे ही ये किरात भी शत्रु रूपी वृक्षों को उखाड़ देने वाले हैं।'
- ६०. सहस्रशस्त्वां परिचर्ययन्ति , स्वाहाभुजः स्वीकृतशासनाश्च ।
तथापि ते तक्षशिलाक्षितीशजये विमर्शः किमकाण्डरूपः॥
'हजारों देवता आपके अनुशासन को मान्यकर आपकी परिचर्या कर रहे हैं। फिर भी
१. गोनं-वंश (गोवन्तु सन्तानोऽन्ववायोऽभिजनः कुलम्-अभि० ३।१६७) २. बाणासनं-घनुष्य की डोरी (शिळा बाणासनं द्रुणा-अभि० ३।४४०) ३. अमी एयु:-इत्यत्र 'असंधिरदसोमुमी'-अनेन सूत्रेणासंधिः । ४. स्वाहाभुक्-देव (स्वाहास्वधाक्रतुसुधाभुजः-अभि० २।२)