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षष्ठः सर्गः
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भरत के सिर पर छत्र था और आगे चक्र चल रहा था । इन दोनों की किरणों के समूह से वह समय चांद और सूर्य के संगमकाल की भाँति प्रतीत हो रहा था ।
२५.
एक एव समयो गगनेलाचारिणां दिननिशान्तरतर्कम् । आततान रजसोरुविमानस्पशिनाऽनिततमोरिपुधाम्ना' ॥
आकाशचारी विद्याधरों और भूमि पर चलने वाले सैनिकों के मन में, बृहद् विमानों का स्पर्श करनेवाले तथा ( विमानों के बीच में रहने के कारण ) सूर्य के ताप पृष्टरजःकणों के कारण एक साथ यह वितर्क उत्पन्न हुआ कि अब रात है या दिन ?
२६.
अन्तरागतविमानततिर्द्वाक्, पस्पृशे गगनरत्नमहोभिः ।
नैव सैनिकशिरांसि समन्तात् पांसुपूररचितान्तरविघ्नः ॥
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सूर्य की किरणों ने बीच में आई हुई विमानों की श्रेणी का शीघ्र ही स्पर्श किया । किंतु उन्होंने सैनिकों के सिरों को नहीं छुआ । क्योंकि चारों ओर के रजःकणों ने बीच में विघ्न उपस्थित कर दिया था ।
२७. भारतेश्वरमिवेक्षितुमुच्चरारुरोह गगनं वसुधेयम् ।
सैनिकोद्धत रजश्छलतः किं पश्यतामभवदेष वितर्कः ॥
देखने वालों को यह वितर्क हुआ कि क्या यह पृथ्वी सैनिकों के द्वारा उठे हुए रजःकणों के मिष से भारत के स्वामी महाराज भरत को देखने के लिए आकाश में आरूढ़ तो नहीं हुई है ?.
२८. भूचराभ्रचरसैन्यवितान, रोदसी भरणकोविदचारैः ।
निर्ममे जगदनेकमनोपि, प्रायशः प्रभवदेकमनस्त्वम् ॥
भूमि और आकाश के मध्य भाग को भरने में निपुण, गमन करने वाले भूचर और आकाशगामी सैन्य समूहों ने विविधता के जगत् को भी प्रायः एक कर दिया । विविध मन वाले जगत् को भी प्रायः एक मन वाला कर दिया ।
२६. व्योमगर्न च विमाननिविष्टैर्मन्दमन्दगति भिविबभूवे । कौतुकालसदृष्टिनिपातैर्लङ्घितु क्षितिचराधिकमार्गम् ॥
१. तमोरिपुधाम्ना - तमोरिपुः सूर्यः, तस्य धाम्ना - आतपेन ।
२. रोदसी - आकाश और भूमि का मध्य भाग ( द्यावाभूम्योस्तु रोदसी - अभि० ६ १६२ )