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- भरतबाहुबलिमहाकाव्यम् ५६. देवतेशितुरपि स्पृहणीया , लक्ष्मि'रस्य परिभाति गतान्ता।
बन्धुबाहुबलिमण्डललिप्सोः , सांप्रतं किमधिकात्र भवित्री ॥
महाराज भरत के पास अनन्त लक्ष्मी है । इन्द्र भी उसकी स्पृहा करता है। ऐसी स्थिति में अब वे अपने भाई बाहुबली के एक प्रदेश को लेने के इच्छुक हैं। उसे लेने से अब उनके कौनसी संपदा अधिक हो जाएगी ?
५७. वाजिराजिभिरिभैश्च विवृद्धात् , प्राभवात्' सुरनरोरगकान्तात् ।।
__ मन्यते तृणवदेष जगन्ति , प्राभवस्मयगिरिए विलयः॥
घोड़ों की श्रेणियों और हाथियों के कारण महाराज भरत का प्रभुत्व (आधिपत्य) बहुत बढ़ गया है । वह आधिपत्य देव, मनुष्य और नागराज के लिए भी कान्त है, स्पृहणीय है । इसलिए वे सारे संसार को तृण की तरह तुच्छ मानते हैं। क्योंकि प्रभुत्व और अहंकार का पर्वत अनुल्लंघनीय होता है।
५८. सात्विका इह भवन्ति हि केचित् , केचिदादधति राजसभावम् ।
तामसत्वमिह कैश्चिदुपास्तं , यज्जना भुवि गुणत्रयवन्तः ॥
इस संसार में कुछ पुरुष सात्विक होते हैं, कुछ राजसिक भाव को धारण करते हैं और कुछ तामसिक वृत्ति वाले होते हैं । इस प्रकार संसार में मनुष्य इन तीन गुणों वाले होते हैं ।
५६. राजसाः किल भवन्ति महीन्द्रा , वैभवभ्रमिविणितनेत्राः ।
यत्प्रभुत्वमसदर्पयितारो , नाधिपत्यमितरत्र सहन्ते ॥
राजे राजसिक वृत्ति वाले होते हैं। उनके नेत्र ऐश्वर्य की भ्रान्ति से विर्णित (भ्रमित) रहते हैं । इसी कारण वे अन्यत्र दूसरे के आधिपत्य को सहन नहीं करते। जहां उनका प्रभुत्व नहीं है वहां भी वे अपना प्रभुत्व थोपते हैं।
६०. दायकत्वसुकृतित्वगुणाभ्यां , सात्विको नरपतिविविदे'ऽयम् । .
सात्विकत्वमवधूय युयुत्सुः , सोदरेण सह तत्कथमेषः ?
दायकत्व और सुकृतित्व (पांडित्य) के कारण हमने महाराज भरत को सात्विक जान
१. लक्ष्मि दीर्घ होना चाहिए । यह प्रयोग चिन्त्य है। २. प्राभवात्-प्रभुत्वात्, आधिपत्यात् । ३. विविदे-विज्ञातः। ४. युयुत्सुः-योद्ध मिच्छु:-युयुत्सुः ।