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पञ्चमः सर्गः
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७४. क्षितिपतिर्बलराजनिवेदितं , वचनमादित मादिततागमम् ।
शुचिवपुः परिधाय च वाससी , अभयदं भयदम्भहरो महत् ॥
महान् लक्ष्मी और संपदा को प्राप्त कराने वाले सेनापति सुषेण के वचनों को भय और दंभ का हरण करनेवाले महाराज भरत ने स्वीकार किया। उन्होंने स्नान आदि से शरीर की शुद्धि की और पवित्र वस्त्र पहन कर अभयदाता भगवान् ऋषभ की पूजा की।
७५. प्रहरणालयमेत्य ततः परं , प्रहरणानि रणानितसाध्वसः ।
विधिवदार्चदरिप्रभृतीनि स , परमया रमया श्रितविग्रहः ॥
उसके पश्चात् महाराज भरत अपनी आयुधशाला में आए। वहां उन्होंने चक्र आदि प्रमुख आयुधों की विधिवत् पूजा की। उन्हें युद्ध का कोई भय नहीं था। उनका शरीर उत्कृष्ट संपदा से शोभित हो रहा था।
७६.
एवं देवप्रणतचरणाम्भोरुहो भारतेशो, नागाधीशं सुरगिरिमिवोत्तुङ्गमारोहदुच्चैः । मौलिन्यस्यत्कनकमुकुटं सोष्णरुक्पूर्वभूभृल्लक्ष्मीलीलामुषमविरतोत्फुल्लनेवारविन्दम् ॥
इस प्रकार देवताओं द्वारा प्रणत चरण-कमल वाले महाराज भरत मेरु-पर्वत की भांति उत्तंग हस्तिरत्न पर आरूढ हुए। उस हस्तिरत्न के मस्तक पर स्वर्ण का मुकुट शोभित हो रहा था और वह अपनी कांति से पूर्वाचल में उदित होने वाले सूर्य की शोभा को चुरा रहा था। उसके नेत्र-कमल निरन्तर विकचित थे।
७७.
म| छत्रं दधदमलरुक् चामर:ज्यमानो, बिभ्रत्पूर्मचल इव विधोबिम्बमुच्छारदाभ्रम् । उत्तानाक्षः सुरनरगणैर्वीक्ष्यमाणः क्षितीशः, कृत्वा नीराजनविधिमथो निर्जगाम स्वसौधात् ।
महाराज भरत ने सिर पर विशद प्रभा वाले छत्र को धारण किया। वे दोनों ओर से चामरों से विजित हो रहे थे । देवता और मनुष्य अपनी आंखों को ऊंची कर उन्हें देख रहे थे । वे पूर्वांचल में स्थित मेघयुक्त चन्द्रबिम्ब की भांति सुशोभित हो रहे थे। वे नीराजन विधि-शस्त्र-पूजन आदि-आदि विधियों को सम्पन्न कर अपने प्रासाद से निकल पड़े।