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व्याख्या
गत
॥३३॥
गंगा कहेवा. [Ho] भावना नेता तथा तदुचित उत्कृष्ट अवगाहनाए अनगाहनाए वर्तता नैरयिको माटे पण ।
अ.
| निरयावासोमांना एक एक निरयावासोमांना एक एक नैरयावासमा जघन्य अवगाहनाए वर्तता नैरयिको शुं क्रोधोपयुक्त छे ? [उ.] हे गौतम । अहीं मांगा जाणवा. अने ए प्रमाणे यावत-संख्येय प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहनाए वर्तता नैरपिको माटे पणार शतक जाणवू, असंख्येय प्रदेशाधिक जघन्य अवगाहनाए वर्तता तथा तदुचित उत्कृष्ट अवगाहनाए वर्तता नरैयिकोना अर्थात् ए वन्नेना पण सत्तावीश भांगा कहेवा. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा त्रीश लाख निरयावासोमांना एक एक निरयावासामां वसता अने क्रियशरीरवाना नैरयिको शुं क्रोधोपयुक्त है? [उ०] हे गौतम ! अहीं सत्तावीश भांगा कहेवा. अने ए गमवडे बाकीना के शरीर अर्थात् बा मळीने त्रण शरीर संबंधे पूर्वोक्त प्रमाणे जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा यावत्वसता नरयिकोना शरीरोन कयु संघयण-संहनन कयुं छे ! [उ०] हे गौतम ! तेओर्नु शरीर संघयण विनानु छ अर्थात् छ संघयणमाथी तेओने एके संघयण नथी. वळी तेओना शरीरमा हाडका, नसो अने स्वायु नथी. तथा जे पुद्गलो अनीष्ट, अकांत अप्रिय, | अशुभ, अमनोज्ञ अने अमनोम छे ते पुद्गलो एओना [नरयिकोना शरीरसंघातपणे परिणमे हे. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमा यावत्-बसता अने छ संघयणमाथी एकपण संधयण बिनाना नैरयिको शुं क्रोधोपयुक्त छे ! [उ०] हे गौतम ! अहीं सचावीश भांगा जाणवा. [प्र०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रभा पृथिवीमां यावत्-वसता नैरयिकोना शरीरो कया संस्थानवाला कयां के ? [उ०] हे गौतम! ते नैरयिकोना शरीरो वे प्रकारना कह्यां छे. ते आ प्रमाणे:-भवधारणीय-ज्यांसुधी जीवे त्यांसुधी रहेनारांअने उत्तरक्रिय. तेमां जे शरीरो भवधारणीय छे ते ढुंकसंस्थानवालां कयां छे, अने जे शरीरो उत्तरवैक्रियरूप छे ते पण ९कसंस्थानवाळां कयां छे. [५०] हे भगवन् ! आ रत्नप्रना पृथिवीमां यावत्-हुँडसंस्थाने वर्तता नैरयिको शुं क्रोधोपयुक्त छ ? [उ.11
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