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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥८४॥
१ तो उद्देशः ७ ॥८४ ॥
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[प्र०) हे भगवन् । शुं जीव विग्रहमतिने प्राप्त है ? के अविग्रहगतिने प्राप्त छे ? [२०] हे गौतम ! ते कदाच विग्रहगतिने प्राप्त छे. अने कदाच अविग्रहगतिने प्राप्त छे ए प्रमाणे यावन्-वैमानिको सुधी जाणवू. [प्र०] हे भगवन् ! शुं जीवो विग्रहगतिने है प्राप्त छे के अविग्रहगतिने प्राप्त छ ? [उ०] हे गौतम ! जीवो विहायोगतिने प्राप्त छे अने अविग्रहविहायोगतिने पण प्राप्त . [प्र०] हे भगवन् ! शुं नरयिको विग्रहगतिने प्राप्त छे के अविग्रहगतिने प्राप्त है ? [उ०] हे गौतम! ते बधाय अविग्रहगतिने प्राप्त छे. अथवा घणा अविग्रहगतिने प्राप्त छे अने एकाद विग्रहगतिने प्राप्त के. अथवा घणा अविग्रहगति ने प्राप्त छे. अने घणा विग्रहगतिने प्राप्त छे. ए प्रमाणे सर्वत्र प्रण भांगा जाणवा. मात्र जीव अने एकेंद्रियमा त्रण भांगा न कदेवा. ॥ ६०॥
देवे णं भंते ! महिढिए महज्जुईए महब्बले महायसे महासुक्खे महाणुभावे अविउतिय चयमाणे किचिवि कालं हिरिवत्तियं दुगुंछावत्तिय परिसहवत्तियं आहारं नो आहारेइ, अहे णं आहारेइ, आहारिनमाणे | | आहारिए परिणामिजमाणे परिणामिए पहीणे य आउए भवइ जत्थ उववजह तमाउयं पडिसंवेएइ. तंजहातिरिकखजोणियाउयं वा मणुस्साउयं वा ?, हंता गोयमा! देवे णं महिड्ढीए जाव मणुस्साउयं वा ॥ (सू०६१)॥
[प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो, मोटी द्युतिवाळो, मोटी कीर्तिवाळो, मोटा वळवाळो, मोटा सामर्थ्यवाळो अने मरण समये च्यवतो महेश नामनो देव शरमने लीधे, घृणाने लीधे, परिषहने लीधे, केटलाक काळ सुधी आहार करतो नथी. पछी आहार करे छे अने लेवातो आहार परिणत पण थाय छे, अने छेवट ते देवनुं आयुष्य सर्वथा नष्ट थाय छे, तेथी ते देव ज्यां उत्पन्न थाय थाय छे त्यांनु आयुष्य अनुभवे छे. तो हे भगवन् ! ते क्युं आयुष्य जाणवू.-तिर्यचयोनिकनुं आयुष्य जाणवू. के मनुष्यनुं आयुष्य
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