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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१४॥
पदेगं । (सू०७४)॥
१ शतके [H०] हे भगवन् ! शुं सादमो अवकाशांतर भारे हे, हळवो छे, भारे हळयो , के अगुरु लघु-भारे हळवा सिायनो छ ?
उद्देशः [[उ०] हे गौतम ! ते भारे नथी, हब्बो नथी, भारे हच्चो नथी पण अगुरुलधु-भारे हळवा सिवायनो के. [प्र०] हे भगवन् ! सातमो तनुवात भारे छे, हळवो छे, भारे हळयो छे के अगुरुलघु छ ? [उ०] हे गौतम ! ते भारे नथी, हळवो नथी, भारे हळवो
॥१०४॥ | छे पण अधुरुलघु नथी. ए प्रमाणे सातमो धनवात, धनोदधि, सातमी पृथ्विी अने वा अवकाशांतरो जाणवां. सातमा अवकाशांतर विषे तनुवात विषे जेम की डे-ए प्रमाणे घनोदधि पृथिवी, दीप, समुद्रो, अने क्षेत्रो विषे पण जागवू. [प्र०] हे भगवन् ! शु
नैरयिको भारे हे, यावत्- अगुरु रघु के ? [उ०] हे गौतम ! तेओ भारे नयी, हळवा नथी, भारे हळवा छे अने भारे हलया सित्रा| यना पण छे. (प्र०] हे भगवन् ! नेनु शु पारण ? [उ०] हे गौतम नैरपिको वैक्रिय अने तैजस शरीरनी अपेक्षाए भारे नथी, हळवा नथी, अने भारे हळवा सिवायना नथी. परंतु भारेहळवा के. अने जीव तथा कर्मनी अपेक्षाए भारे नथी, हळवा नथी. भारे | हटवा नथी, पण भारे हळवा सिवायना छे. हे गौतम ! ते कारणथी पूर्व प्रमाणे कमु . अने ए प्रमाणे यात्- वैमानिको सुधीर जाणवू. विशेष एके, शरीरोनो भेद जायचो. तथा धर्मास्तिकाय अने यावत्- जीवास्तिकाय चोथा पदवडे जाणवा. अर्थात्- बधा अगुरुलघु जाणवा. [H०] हे भगवन् ! शु पुद्गलास्तिकायगुरु थे, लघु छ, गुरुलघु छे, के आरुलघु के ? [उ.] हे गौतम : पुद्गलास्तिकाय गुरु नथी, लघु नथी पण गुरुलघु , अने अगुरुलघु पण छे. [प्र०] हे भगवन् ! तेतुं शु कारण ! [उ०] हे गौतम ! गुरुलघु द्रव्यनी अपेक्षाए गुरु नथी, लघु नथी, अगुरुलबु नथी पण गूरुलबु छे अने अगुरुलघु दव्योनी अपेक्षाए गुरु नथी,
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