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व्याख्या प्रज्ञप्तिः ॥२७८॥
| ३ शतके उद्देशः३ ॥२७८॥
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सया समितं जाव परिणमइ तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति?, णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति !, मंडियपुत्ता! जावं च ण से जीवे सया समितं जाव परिणमति तावं च णं से जीवे आरंभह सारंभह समारंभइ आरंभे | वदृइ सारंभे वह समारंभे वहइ आरंभमाणे सारंभमाणे समारंभमाणे आरंभेवमाणे सारंभे वहमाणे समारंभ
वहमाणे वरणं पाणाणं भूयाण जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणयाए सोयावणयाए जूरावणयाए तिप्पावणयाए पिहावणयाए परियावणयाए वहइ, से तेण?णं मंडियषुत्ता! एवं बुच्चइ-जावं च णं से जीवे सया समियं एथति जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स भंते अंतकिरिया न भवइ ।
[4] हे भगवन् ! जीव, हमेशां मापपूर्वक कंपे छे, विविध रीते कंपे छे, एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे जाय छ, स्पंदन क्रिया करे छे. पधी दिशाओमां जाय छे, थोम पामे छे, प्रबळतापूर्वक प्रेरणा करे छे अने ते ते भावने परिणमे छे ? [प्र.] हे मंडितपुत्र! हा, जीव हमेशां मापपूर्वक कंपे छे, अने ते ते भावने परिणमे के.[प्र.] हे भगवन् ! ज्यांसुधी ते जीव, हमेशां मापपूर्वक कंपे के ते ते भावने परिणमे छे, त्यांमुधी ते जीवनी मरण समये अंतक्रिया तेनी (मुक्ति) थाय! [उ०] हे मंडितपुत्र ! ए अर्थ समर्थ नथी. [३०] हे भगवन् ! ज्यांमुधी ते जीव, हमेशा माषपूर्वक कंपे त्यसुधी मुक्ति न थाय' एम कहेवानुं शुं कारण ! [उ०] हे मंडितपुत्र ! भ्यांसुधी ते जीव, हमेशां मापपूर्वक कंपे हे यावत्-ते ते भावने परिणमे छे त्यांसुधी ते जीव, आरंभ करे , संरंभ करे के, समारंभ करे , आरंभमां वर्ने छ, संरंभमां व छ, समारंभमां वर्ते के अने ते आरंभ करतो, संरंभ करतो, समारंभ करतो तथा
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