Book Title: Bhagvati Sutram Part 01
Author(s): Sudharmaswami, 
Publisher: Hiralal Hansraj

View full book text
Previous | Next

Page 327
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥३२१॥ ३ शतके उमेशः१० ॥३२॥ उद्देशक १०. (आ दशमा उद्देशकमां देवो संबंधी वक्तव्यता कहे छे) रायगिहे जाव एवं वयासी-चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररनो कति परिसाओ पपणत्ताओ?, गोपमा! तओ परिसाओ पपणत्ताओ, तंजहा-समिता चंडा जाया, एवं जहाणुपुब्बीए जावडरचुओ कप्पो, सेवं भंते २॥ (सू. १७०) ॥ तहयसए दसमोइसो संमत्तो ३-१०॥ ततियं सयं समत्तं ॥३॥ [प्र०] राजगृह नगरमा यावत आ प्रमाणे बोल्या के-हे भगवन् ! असुरेंद्र, असुरराज चमरने केटली सभाओ कही छे ? [उ.] हे गौतम ! तेने प्रण सभाओ कही छे. ते आ प्रमाणेः-१ शमिका २ चंडा ३ जाता ए प्रकारे क्रमपूर्वक अच्युतकल्प सुधी जाणवू. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे. एम कही यावत्-विहरे छे. ॥ १७० ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना श्रीजा शतकमां दशमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो. शमिका-पोताना उत्तमपणाने लीधे स्थिर स्वभाववाळी होवाधी समतावाली अने पोताना उपरीप कहेल कोप अगर उतावलवाळा घचनोने मान्य करी शांत रहेनारी शमिका-२ चडा-साधारण प्रसंगमा पण बोली नासनारी से चंडा. जाता-कोपने अस्थाने प्रगट करनारी ते जाता. मात्रणे सभा क्रमपूर्वक अभ्यंतर, मध्यमा मने याह्या छ समिका अभ्यंतरसभा छे, चंडा वचली सभा For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 325 326 327 328 329 330