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व्याख्याप्रज्ञप्तिः
॥२८६ ।।
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यतोवगं गः १, गोयमा ऊसिओदपि ग० पययोदयंपिग से भंते । किं एगओपडागं गच्छ दुहुओपडागं गच्छद ?, गोगमा ! एगओ पडागं गच्छइ, नो दुहओ पडागं गच्छछ, से णं भंते! किं बाउकाए ? पडागा ?, गोघमा बाउकाए णं से, मो खलु सा पडागा ॥ ( सू० १५३) ॥
[अ०] हे भगवन् ! वायुकाय, एक मोटुं स्त्रीरूप, पुरूषरूप, हस्तिरूप, यानरूप, ए प्रमाणे जुग्ग, गिल्लि, थिल्ल, शिविका (डोळी) अन स्पंदमानिका ए मधानुं रूप विकुर्वी शके छे ? [अ०] हे गौतम! ए अर्थ समर्थ नथी. पण विकुर्वणा करतो वायुकाय, एक मो पताकाना आकार जेवं रूप विकुर्वे छे. [प्र० ] हे भगवन् ! वायुकाय, एक मोहुं पताकाना आकार जेवुं रूप विकुर्वी अनेक योजन सुधी गति करवाने शक्त छे ? [उ०] हे गौतम ! हा, तेम करवाने शक्त छे. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते वायुकाय, आत्मऋद्विधी गति करे छे के परनी ऋद्धिथी गति करे छे ? [अ०] हे गौतम! ते आत्मऋद्धिधी गति करे छे पण परनी ऋद्धिथी गति करतो नथी. जेम ने आत्मऋद्धिथी गति करे छे तेम ते आत्मकर्मथी अने आत्मप्रयोगथी पण गति करे छे' ए प्रमाणे कहे. [प्र० ] हे भगवन् ! शुं ते वायुकाय, उंची पताकानी पेठे रूप करी गति करे छे, के पडी गएली पताकानी पेठे रूप करी गति करे छे, [उ०] हे गौतम! ते, उंची पताकानी पेठे अने पडी गयेली पताकानी पेठे ए बन्ने प्रकारे रूप करी गति करे छे. [प्र०] हे भगबन् 1 शुं ते एक दिशामां (एक) पताका होय एवं रूप करी गति करे छे के वे दिशामां (एक साथे बे ) पताका होय एव ं रूप करी गति करे छे ? [अ०] हे गौतम! ते, एक दिशामां पताका होय एवं रूप करीने गति करे छे, पण वे दिशामां पताका होय एवं रूप करीने गति करतो नथी. [अ०] हे भगवन् ! तो शुं ते वायुकाय पताका छे ? [अ०] हे गौतम! ते वायुकाय, पताका
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३ शतके उद्देशः४ ॥२८६ ॥