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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१३९
सअंते खेसओ लोए सअंते कालतो लोए अणते भावओ लोए अणते । ॥७॥ पछी 'हे स्कंदक' ! एम कही श्रमण भगवंत महावीरे कात्यायनगोत्रीय स्कंदक परिव्रामकने आ प्रमाणे कार्यु के:-हे स्कंदक!
M२ शतके श्रावस्ती नगरीमा रहेता वैशालिक श्रावक पिंगलक नामना निग्रंथे तने आ प्रमाणे आक्षेपपूर्वक पूण्यु हतुं के हे मागध ! शुं लोक
उद्देशः१ अंतवाळो डे के अंत विनानो छ ? ए बधुं आगळ कह्या प्रमाणे जाणी लेवु यावत-तेना प्रश्नोथी मंझाइने तुं मारी पासे शीघ्र आन्यो १३९॥
९.' हे स्कंदक! केम ए साची वात छे ? हा, ते साची वात छे. वळी हे स्कंदक! तारा मनमा जे आ प्रकारनो संकल्प थयो हतो | के, 'शुं लोक अंतवाळो ? के अंत विनानो छ ?' नेनो पण आ अर्थ छ:-में लोकने चार प्रकारनो जणान्यो . ते आ प्रमाणे:द्रव्यथी-पलोक, क्षेत्रथी-क्षेत्रलोक, काळथी-काळलोक अने भावथी-भावलोक. तेमा जे द्रव्यलोक छे ते एक के अने अंतवालो के जे क्षेत्रलोक छे ते असंख्य कोडाकोडी योजन सुधी लंबाइ पहोळाइबाळो छे, तथा तेनी परिधि असंख्य योजन कोडाकोडीनो कह्यो| | छे अने वळी तेनो अंत छे. तथा जे काळलोक छे ते कोइ दिवस न हतो एम नथी अने कोइ दिवस नथी एम पण नथी. ते हमेश 8 हतो, हमेश होय छे अने हमेशा रहेशे, ते ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे. वळी तेनो अंत नथी.
तथा जे भावलोक छे ते अनंत वर्णपर्यवरूप छे, अनंत गंध, रस अने स्पर्शपर्यवरूप छे, अनंत संस्थान (आकार) पर्यवरूप छे अनंत गुरुलघु पर्यवरूप छे तथा अनंत अगुरुलघु पर्यवरूप छे, वी ते अंत नथी. तो हे स्कंदक ! ते प्रमाणे दन्यलोक अंतवालो के, क्षेत्रलोक अंतवाळो छे, काळलोक अंतवाळो छे. अने भावलोक अंत विनानो छे. लोक अंतवाळो छे अने अंतविनानो पण छे. ॥७॥
जेविय ते खंदया! जाव सअंते जीवे अणते जीवे, तस्सविय गं एयमद्वे-एवं खलु जाव दब्बओ एगे
कककककक
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