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व्याख्याप्रज्ञप्तिः ॥१०॥
|१ शतके उद्देशः ९
RE:शुली
| कथा .-शैलप्रतिपन्न अने अशैलप्रतिपन्न. तेमा जे शैलप्रतिपन्न छे ते लब्धीवीर्यवडे सीर्य छे अने करणवीर्यवडे अबीर्य छे. तथा| जेमां जे अशैलेशीप्रतिपन्न छे ते लब्धिवीर्यवडे सवीर्य होय छे. पण करणवीर्यवडे तो सवीर्य तथा अवीर्य पण होय हे. माटे हे
गौतम ! ते हेतुथी एम क छ के, जीवो बे जातना छे-वीर्य गळा अने वीर्यविनाना पण छे' [प्र०] हे भगवन् ! शुं नैरयिको वीर्य-1 मावाला छे के वीर्यविनाना ![उ० हे.गौतम! ते नैरयिको लब्धि र्यवडे सबीर्य छे अने करणवीर्यवडे सवीर्य अने अवीर्य पण
छे. [३०] हे भगवन् ! तेनु शुं कारण ? [उ०] हे गौतम ! जे नारकीभो उत्थान, कर्म बल, वीर्य अने पुरुषाकार पराक्रम के, ते नरयिको लब्धीवीर्यबडे अने करणवीर्यबडे अबीर्य छे. माटे हे गौतम ! हे हेतुथी पूर्व प्रमाणे जाणवू. ए प्रमाणे यावत्-पंचेंद्रियतिर्यच योनिको सुधीना जीवो विषे नैरयिकोनी पेठे जाणवू अने सामान्य जीवोनी पेठे मनुष्यो विषे जाणवू. विशेष ए के, सिद्धाने वर्जी देवा, सामान्य जीवोमा आवता सिद्धोनी पेठे मनुष्यो न जाणवा. तथा वानव्यतरो ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरपिकोनी पेठे जाणवा. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे छे, ते ए प्रमाणे छे, एम कही यावत् विहरे छे ॥ ७२ ॥ भगवत् सुधर्मस्वामीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना प्रथम शतकमां आठमा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
उद्देशकः ९. कहनं भंते ! जीवा गरुयत्तं हवमागच्छन्ति ?, गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्ना मेहुण परि०. कोह०माणमाया०लोभ पे० दोस० कलह अन्भक्खाण पेसुन्नतिअरति० परपरिवाय मायामोस०मिच्छादस
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