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व्याख्याप्रज्ञासिः ॥ ६८॥
| उद्देशः ५
॥६ ॥
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करनRAI-
नानात्व भिन्नत्व जाणवू. ॥ १८ ॥ ___ असंखेजेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढवीकाइयावासंसि पुढविकाइयाणं केवतिया ठितिठाणा पएणत्ता!, गोयमा ! असंखेना ठितिठाणा पण्णत्ता, तंजहा-जहनिया ठिई जाव तप्पाउरगुकोसिया ठिई । असंखेजेसु णं भंते ! पुढाविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढाविकाइयावासंसि जहनिया ठितीए बद्दमाणा पुढविकाइया कि कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ता?, गोयमा ! कोहोरउ|त्तावि माणोवउत्तावि मायोवउत्ताधि लोभोवउत्तावि, एवं पुदविक्काइयाणं सम्वेसुवि ठाणेसु अभंगय, नवरं | तेउलेस्साए असीति भंगा, एवं आउक्काइयावि, तेउकाइयवाउकाइयाणं सब्वेसुवि ठाणेसु अभंगयं ॥ वणस्सइकाइया जहा पुदविकाइया ॥ (सू०४९)
[प्र०] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकना असंख्येय लाख आवासोमांना एक एक आवासमा बसता पृथिवीकायिकोना स्थितिस्थानो केटलां कह्यां छ? [उ.] हे गौतम ! तेओना स्थितिस्थानो असंख्येय कयां से. ते आ प्रमाणे:-तेओनी ओछामा ओछी स्थिति, ते एक समयाधिक, बे समयाधिक, इत्यादि यावत् तेने उचित उत्कृष्ट स्थिति जाणवी. [प्र.] हे भगवन् ! पृथिवीकायिकना | असंख्येय लाख आवासोमांना एक एक आवासमां वसता अने जघन्य स्थितिवाला पृथिवीकायिको शुं क्रोधोपयुक्त छ ? मानोपजीपयुक्त छ ! मायोपयुक्त छ ? के लोभोपयुक्त छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ क्रोधोयुक्त पण छे, मानोपयुक्त पण छ, मायोपयुक्त पण
के अने लोभोपयुक्त पण छ. ए प्रमाणे पृथिवीकायिकोने वधाय पण स्थानोमा अभंगक छे. विशेष एके-तेजोलेश्यामां अंशी अशी
प्रि०] हे भगवन् ! पति
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तेओना स्थितिस्थान
स्थिति जाणवी. प्र.
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