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निवेदन जैन आगम साहित्य एक ऐसा रत्नाकर है, जिसमें विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक रत्न भरे पड़े हैं। जो साधक इस रत्नाकर में जितनी गहरी डुबकी लगाता है, उसे उतने ही अमूल्य आध्यात्मिक रत्न प्राप्त हो सकते हैं। आवश्यकता है हंस बन कर इसमें अवगाहन करने की। वर्तमान में हमारे जैन आगम साहित्य जगत में जो बत्तीस आगम उपलब्ध हैं, उसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र पांचवाँ अंग सूत्र है। यह सूत्र तत्त्व ज्ञान की गंभीरता, विषय की विविधता एवं विशालता की दृष्टि से अपनी अलग ही पहिचान रखता है। समवायांग सूत्र एवं नंदी सूत्र में इस सूत्रराज में ३६००० प्रश्नोत्तर होने का अधिकार मिलता है। विविधता की दृष्टि से विश्वविधा जगत की कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसकी प्रस्तुत आगम में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष चर्चा न की गई हो। इस आगम की शैली अन्य आगमों से भिन्न है। इसमें प्रश्नोत्तरों के माध्यम से जैन तत्त्वज्ञान का प्रतिपादन, विवेचन इतना विस्तृत किया गया है कि पाठक सहज ही विशाल तत्त्वज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं।
समवायांग सूत्र में बतलाया गया है कि अनेक देवताओं राजाओं, राजऋषियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे। उन सभी प्रश्नों का भगवान् ने सविस्तार उत्तर दिया है। इस आगम में मात्र स्वमत का ही निरूपण नहीं किया गया, अपितु अन्य मत का भी निरूपण हुआ है। इसके अलावा इस आगम के प्रति जन मानस में अपार श्रद्धा रही है। श्रद्धा के कारण ही व्याख्याप्रज्ञप्ति के पूर्व 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त हुआ। शताधिक वर्षों से तो "भगवती" विशेषण न रह कर व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का अपर नाम हो गया है। आज व्यवहार में यह आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा भगवती सूत्र के नाम से ज्यादा प्रचलित है। तत्त्वों की व्याख्या, सूक्ष्मता, ऐतिहासिक घटनाओं, विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन आदि का विवेचन इतना विस्तृत किया गया है कि इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोष कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी।
भगवती सूत्र के प्रकाशन की योजना श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ की एक विशिष्ट योजना थी। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन विक्रम संवत २०२१ में हआ और अन्तिम सातवाँ भाग वि.सं. २०२६ में सम्पूर्ण हुआ। यानी पूरे आठ वर्ष इस भगवती सूत्र की प्रथम आवृत्ति प्रकाशित होने में लगे। इस सूत्र के अनुवाद का आधार, अनुवादक विद्वान् का नाम तदुपरान्त इसके सुनने वाले पूज्य बहुश्रुत गुरुदेव एवं सैद्धान्तिक धारणा, संशोधन आदि के कारण इस सूत्रराज ने जो प्रामाणिकता एवं प्रसिद्धि हासिल की इसका विस्तृत विवेचन समाज के जाने-माने विद्वान् एवं सम्यग्दर्शन के आद्य सम्पादक श्रीमान् रतनलालजी सा. डोशी ने इस सूत्र के प्रथम भाग में सविस्तार से दे दिया है। साथ ही प्रथम भाग में आई विषय सामग्री के साथ समाज में परम्परागत चली आ रही सैद्धान्तिक धारणा में किये गये संशोधन का आगमिक प्रमाण के साथ स्पष्टीकरण भी किया। अतएव पाठक बन्धुओं को प्रस्तुत सूत्र के इस प्रथम भाग की प्रस्तावना का अवश्य अवलोकन करना चाहिये।
जून १६६३ में जब कार्यालय सैलाना से ब्यावर स्थानान्तरित हुआ, उस समय भगवती, प्रश्नव्याकरण, उपासकदशा सूत्र तो बड़े आगम बत्तीसी साईज में थे तथा नंदी सूत्र, उत्तराध्यपन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, अंतगडदशा सूत्र छोटी साईज में उपलब्ध थे। इसके अलावा समवायांग, सूत्रकृतांग, ठाणांग और विपाक सूत्र के हस्तलिखित कापियों के बंडल मिले, जो समाज के जाने माने विद्वान् पंडित श्रीमान् घेवरचन्द्रजी बांठिया “वीरपुत्र" न्याय-व्याकरण तीर्थ, सिद्धान्त शास्त्री द्वारा बीकानेर में रहते हुए अनुवादित किये गये थे। उन बंडलों को देखकर मेरे मन में भावना बनी क्यों नहीं इनको व्यवस्थित कर इनका
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