Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ आर्य स्कन्दक का धर्मवाद श. २ उ. १ पृ. ३९० से आर्य स्कन्दक का धर्मवाद और उसके परिणाम को बताने वाला अधिकार प्रारंभ हुआ है। परिव्राजकाचार्य स्कन्दक को पिंगल नाम के निग्रंथ ने कुछ प्रश्न पूछे । उन प्रश्नों का उत्तर श्री स्कन्दकजी के पास नहीं था। उनके लिए वे प्रश्न नये ही थे। श्री स्कन्दकजी विद्वान् थे । वे वेद विशारद एवं वैदिक धर्म के प्रवर्तक थे । उनका हृदय सरल और गुण ग्राहक था। उन्हें उत्तर नहीं आया, तो वे मौन रह गए । किंतु अंटसंट उत्तर देकर प्रश्न कार को टाला या दबाया नहीं। वे सत्य उत्तर देना चाहते थे। जिस विषय में उनकी जानकारी एवं विश्वास हो, वे वही उत्तर देना चाहते थे। उनके हृदय में सत्य के लिए स्थान था, पक्ष के लिए नहीं । वे सत्य समझने के लिए भ. महावीर की शरण में आने से भी नहीं हिचकिचाये। उनके सामने पक्ष-प्रतिष्ठा बाधक नहीं बनी। म. महावीर से समाधान पाकर उनकी आत्मा की दिशा ही बदल गई और वे सच्चे साधक बनकर आत्म कल्याण में जुट गए । पिंगल निग्रंथ का वाद, श्रीस्कन्दकजी के लिए उद्धारक बन गया । कषाय भावना से रहित वाद, हितकारक होता है और कषाय भावना से प्रेरित वाद, अहितकर होता है, वितण्डावाद होता है वहां । ऐसे वाद में सत्य की परवाह नहीं होती । पक्ष का भूत ही उसके सिर पर सवार रहता है । आर्य स्कन्दकजी का यह चरित्र वितंडावाद से बचाने की प्रेरणा देता है । तुंगिका के श्रावक श. २ उ. ५ में तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन, हम उपासकों के लिए मनन करने और शिक्षा लेने योग्य है। उनकी भौतिक ऋद्धि की ओर नहीं ललचा कर उनकी धर्मश्रद्धा, धार्मिक दृढ़ता और निग्रंथ प्रवचन में अनुरागता की ओर ध्यान देना चाहिए। उनकी आत्मा में धर्म प्रेम इतना समा गया था कि कोई देव, दानव भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता था। वे आनन्द कामदेव और अरहन्नक जैसे सुश्रावक थे। उन्होंने संयम और तप के फल के विषय में प्रश्न किये । प्रश्न महत्वपूर्ण थे । उनके उत्तर भी महत्वपूर्ण और समझने योग्य हैं। संयम का फल अनाश्रव-संवर और तप का फल निर्जरा है। संयम और तप, बन्धन कारक नहीं होते । संयम से बन्ध की रोक होती है और तप बन्धन काटता है। किंतु संयम पालते हुए और तप करते हुए देवायु का बन्ध क्यों होता है ? यह प्रश्न तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 552