Book Title: Bhagvati Sutra Part 01 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 8
________________ - तात्पर्य यह है कि आश्रव संसार मार्ग है और संवर मोक्षमार्ग है । आश्रव त्यागने योग्य है और संवर आदरने योग्य है । हम सभी यथा शक्ति संवर का सेवन करें और संवरवान् का आदर सत्कार करें, इसी में हमारा आत्महित है । यह आत्म कल्याण का राज मार्ग है । त्रिकाल सत्य है। कांक्षामोहनीय कर्म प्रथम शतक का तीसरा उद्देशक 'कांक्षा-मोहनीय कर्म' के विषय को स्पष्ट करता है । कांक्षामोहनीय कर्म, मिथ्यात्व में ले जाता है। जिनधर्म से गिराकर अधर्म में धकेलता है । जीव में दर्शन-मोहनीय के उदय से शंका कांक्षादि उत्पन्न होते हैं । यदि शंका का समाधान हो जाय, तब तो ठीक ही है, अन्यथा सूत्र ११९ में बताये अनुसार-"तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहि पंवेइयं"-वही सत्य और सन्देह रहित है जो जिनेश्वर भगवान् ने निरूपण किया है, इस प्रकार सोचकर आत्मा को मिथ्यात्व में गिरने से बचाना ही श्रेयस्कर है। आत्मार्थियों के लिए यह भाव, आत्मा में दृढीभूत करना अत्यावश्यक है । इसीसे पतन रुकता है और आत्मा मिथ्यात्व से बची रहती है। आत्म कृत कर्म .: श. १ उ. ६ सूत्र २०६ से बताया है कि अपने कर्मों का कर्ता ज़ीव खुद ही है । आत्मा स्वयं ही कर्मबन्ध करती है, दूसरी कोई भी शक्ति, जीव को कर्म के बन्धन में नहीं बांध सकती। ईश्वरवादी सुख दुःख का सर्जक ईश्वर को मानते हैं, यह बात उक्त सिद्धांत से खंडित हो जाती है । एकान्त निश्चयवादी, आत्मा को कर्म का कर्ता नहीं मानते, किंतु उनकी एकान्त प्ररूपणा भी ठीक नहीं है । शुद्धस्वरूप-परम पारिणामिक भाव की अपेक्षा आत्मा शुद्ध एवं निविकार है। वह पाप या पुण्य की कोई भी क्रिया नहीं करती। किंतु जहां तक परम पारिणामिक भाव प्रकट नहीं हो और अनादि सपर्यवसित औदयिक भाव रहे, तबतक वह अशुद्ध दशा में है । जीव, स्वयं क्रिया करता है। सुख दुःख का अनुभव करता है । उसे भूख प्यास और रोगादि की वेदना होती है। भोजन और पानी मिलने पर तृप्ति का अनुभव करता है । रोग होने पर दुःख का, आपत्ति आने पर भय का और इष्ट वियोग होने पर शोक का अनुभव करता है । स्वयं एकान्त निश्चयवादी भी शारीरिक कष्ट और थाक से बचने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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