Book Title: Bhagvati Sutra Part 01 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 7
________________ में अशुद्धियाँ होने से, सूत्रों के अति गंभीर होने से और मतभेद होने के कारण इस टीका में त्रुटियों का रहजाना संभव है । इसलिए विवेकवान् पुरुषों से निवेदन है कि वे इस सूत्र के उसी अर्थ को माने जो सिद्धांत के अनुरूप हो । सिद्धांत विरुद्ध अर्थ को नहीं माने । दया में तत्पर ऐसे जिनेश्वर के भक्त पुरुष, संसार के घोर कारणभूत ऐसे अपसिद्धांतउत्सूत्र प्ररूपणा से रक्षा करते हुए इस व्याख्या की शुद्धि करें । आदि वास्तव में सूत्रकार की अपेक्षा समझकर विवेचन करना सरल नहीं है । यदि सूत्रकार की अपेक्षा छोड़कर मात्र शब्दों पर ही आधार रखकर व्याख्या की जाय, तो अनर्थ होने की संभावना है । गीतार्थ परम्परा नहीं रहने से भी अर्थ में विषमता आ सकती है। . गुरुपरम्परा अर्थात् पुरानी धारणा भी सिद्धांत की अपेक्षा समझने में सहायक होती है। वास्तव में अर्थ और व्याख्या वही निर्दोष होती है जो मूल के आशय के विपरीत नहीं जावे। वर्तमान में मूल एवं निग्रंथ प्रवचन के आशय की उपेक्षा करके लोकानुसारी अर्थ करने की रुचि विशेष दिखाई देती है। यह चिंता का विषय है। बहुश्रुत मुनिराजश्री वही अर्थ बतलाते हैं. जो मूल के आशय और सिद्धांत के अन्य स्थलों पर आये हुए प्रसंगों के अनुकूल हो। भगवती सूत्र का अनुक्रम से आद्योपान्त अध्ययन के करके विशेष लाभ लेना तो अत्युत्तम है ही। किंतु इतना उद्योग सभी जिज्ञासु नहीं कर सकते । ऐसे साधारण बन्धुओं को नीचे लिखे कुछ विशिष्ट स्थलों को अवश्य हो देखना चाहिए और उन भावों को हृदय में उतारकर लाभान्वित होना चाहिये । यदि वे पहले इतना करके अपनी रुचि बढ़ाकर फिर प्रारंभ से अध्ययन करेंगे, तो उनकी प्रज्ञा में निर्मलता की वृद्धि होगी और वे आगे गति करते जावेंगे। उपादेयश्च संवरः इस सूत्र के पृ. ९४ में प्रश्न ५६ व ५७ के उत्तर में गणधर महाराज के प्रश्न करने पर भ. महावीर देव ने स्पष्ट फरमाया है कि जो मनुष्य, साधु कहाकर भी असंवृत है -- आश्रव का सेवन करता है, वह मुक्त तो नहीं होता, किन्तु कर्मबन्धन बढ़ाकर संसार परिभ्रमण बढ़ा लेता है । इससे समझना चाहिये कि जबतक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद आदि आश्रव मौजूद है, तबतक संसार परिभ्रमण चालू ही रहता है, भले ही वेश साधु का हो । इसके बाद सूत्र ५८ व ५९ पृ. ९८ में स्पष्ट कहा है कि संवरवान अनगार ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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