Book Title: Bhagvati Sutra Part 01
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 5
________________ - - उचित थे। इनसे सैद्धांतिक मतभेद दूर होकर वास्तविकता स्पष्ट होती है । जैसे (१) श. १ उ. १ के आत्मारंभादि विषय में टीकाकार, प्रमत्त-संयती में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या नहीं मानते हैं, किंतु यह मान्यता सिद्धांत के अनुकूल नहीं होने से टिप्पण में (पृ. ९१) इसका खुलासा करके प्रमत्तसंयत में छहों लेश्या का सद्भाव बतलाया है। प्रमाण में भगवती सूत्र श. ८ उ. २ का निर्देश किया है। वहां कृष्ण लेश्यावाले जीवों में, सइन्द्रिय जीवों की तरह चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से बताया है । कृष्ण लेश्यावाले जिन जीवों में मनःपर्यवज्ञान पर्यन्त तीन या चार ज्ञान होंगे, वे संयतीही होंगे। क्योंकि मनःपर्यवज्ञान संयत में ही होता। प्रज्ञापनासूत्र पद १७ उ. ३ का मूलपाठ भी यही बतलाता है । यथा "कण्हलेसे णं भंते ! जीवे कइसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसुवा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा । दोसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाणे होज्जा, तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा अहवा तिसु होमाणे आभिणिबोहिय-सुयनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे आभिणिबोहियसुय-ओहि मणपज्जवनाणेसु होज्जा । एवं जाव पम्हलेसे।" इसमें भी कृष्णादि लेश्या में मनःपर्यवज्ञान स्वीकार किया है, जो संयती में ही होता है। (२) श. १ उ. २ में आयु के वेदन सम्बन्धी उत्तर ६८ में टीकाकारश्री ने वृद्धों की धारणा का उल्लेख करते हुए श्री कृष्णवासुदेव का उदाहरण देकर बताया कि-'पहले उन्होंने सातवीं पृथ्वी का आयुष्य बांधा था, किन्तु बाद में तीसरी का बांधा।' इस कथन को पृ. ११४ में सिद्धांत से विपरीत बताकर लिखा है कि यह बात स्वयं टीकाकारश्री के अपने पूर्व विधान से ही विपरीत जाती है । टीकाकार ने प्रथम उद्देशक में असंवृत अनगार के सम्बन्ध में 'आउय वज्जाओ' शब्द (उत्तर ५७) पर टीका करते हुए लिखा है कि'आयुकर्म एक भव में एक बार ही बँधता है । अतएव एक भव में दो बार आयु का बन्ध बताना उचित नहीं है । इस विषय में इस पुस्तक के पृ. ११३ के अंतिम पेरे में दिया हुआ विवेचन निर्विवाद एवं सूत्राशय के अनुरूप है। सभी संसारी जीवों के ऐसा ही होता है। (३) श. १ उ. २ में तिर्यचों का उपपात उत्कृष्ट सहस्रार कल्प में बताया, वहां टीकाकार श्री. देशविरत तिर्यंच को ही इसका अधिकारी बतलाते हैं । इस विषय में पृ. १५७ के टिप्पण में बताया कि बिना देश विरति के भी संज्ञीतियंच, सहस्रार तक जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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