Book Title: Bhagvati Sutra Part 01 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ * प्रस्तावना * . जैन वाङमय में भगवतीसूत्र का स्थान महत्वपूर्ण है । अंग साहित्य में आचारांग का स्थान सर्व प्रथम है । यह सर्व-संवर की आराधना की दृष्टि से है, किंतु तत्त्वज्ञान एवं गंभीर अध्ययन की दृष्टि से भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र अपना विशेष स्थान रखते हैं। इनमें भी प्रज्ञापना सूत्र मात्र द्रव्यानुयोग का ही प्रतिपादक है, किन्तु भगवतीसूत्र तो चारों अनुयोग को धारण करनेवाला है । इसमें विविध विषयों का प्रतिपादन हुआ है । हम जब भगवतीसूत्र का अध्ययन करते हैं, तो स्पष्ट दिखाई देता है कि पहले इसकी सामग्री बहुत विशाल थी। इस सूत्रराज में ऐसी भी सामग्री विद्यमान थी जो अब उपलब्ध नहीं है और बहुतसा भाग संकुचित करके वहाँ प्रतापना आदि सूत्रों का निर्देश किया गया है। इस सूत्र में इतनी सामग्री है कि जिससे यह पांचवां अंग, अन्य किसी भी अंग और उपांग से विशाल है और अपने में सर्वाधिक वस्तु लिये हुए है। इसका प्रारंभ ही "चलमाणे चलिए" रूप एक विशिष्ठ आत्म शुद्धिकर तत्त्व से हुआ है । कहा जाता है कि भगवतीसूत्र में ३६००० प्रश्नोत्तर हैं । इस सूत्रराज का एक नाम 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' भी है। इसमें सभी ज्ञेय पदार्थों के विषय में अपेक्षापूर्वक कथन किया गया है । इसको 'जयकुंजर'-देवाधिष्टित विजयवंत गजराज, की उपमा से टीकाकार ने सुशोभित किया है । जैनधर्म को विशेषरूप से समझने एवं तत्त्वज्ञान का तलस्पर्शी अध्ययन करने के लिए भगवतीसूत्र एक विशाल श्रुतभण्डार है। ज्यों ज्यों इसका स्वाध्याय, चिन्तन एवं परिशीलन किया जाय, त्यों त्यों नये नये अमूल्य रत्ल मिलते रहते हैं। भगवतीसूत्र के प्रकाशन की योजना संस्कृति रक्षक संघ की एक विशिष्ट योजना है। इसके अनुवाद का काम समाज के अनुभवी विद्वान् श्रीयुत पंडित घेवरचंद्रजी वांठिया वीरपुत्र (वर्तमान में श्रीवीरपुत्रजी महाराज) न्याय व्याकरण तीर्थ, सिद्धांतशास्त्री ने किया। आपने शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन से सम्पन्न करके एसा सरल बना दिया है कि जिससे समझने में सरलता हो । श्रीमभयदेवमूरिजी की टीका की सहायता से विवेचन लिखा गया है । पंडितजी ने इस सम्पादन को बहुश्रुत पंडितरत्न श्रमणश्रेष्ठ मुनिराज श्रीसमर्थमलजी महाराज साहब को सनवाड़ और बालेसर के चातुर्मास में सुनाया । मुनिराजश्री ने जहां अर्थ में विषमता प्रतीत हुई, वहां संशोधन करवाया । ये संशोधन वास्तव में आवश्यक और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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