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बौद्ध धर्मशासन और पर्यावरण संरक्षण
होती है। मनुष्य के मनमें रहे हए ममत्व, ईर्ष्या क्रोध आदि सब अनिष्टों के मूल में हैं । विषयभोग की वासना सारे संघर्षों की जननी है । विषयों के उपभोग के प्रति राग-तृष्णा या मोह व्यक्ति का सर्वनाश कर सकती हैं । और व्यक्ति पर ही समाज निर्भर है।
इस तरह सामाजिक जीवन में विसंवादिता उत्पन्न करनेवाली चार मूलभूत असद् वृत्तियाँ हैं - १. संग्रह (लोभ) २. आवेश (क्रोध) ३. गर्व (अभिमान) और ४. माया (छिपाना) । ये चारों अलग अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं । १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, स्वार्थपूर्ण व्यवहार, क्रूर व्यवहार, विश्वासघात आदि बढते हैं । २. आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष और युद्ध का जन्म होता है। ३. गर्व - अभिमान से, मालिकीकी भावना जागृत होती है और दमन बढता है । इस प्रकार कषायों - असवृत्तिओं के कारण सामाजिक जीवन दृषित होता है। सामाजिक विषमताओं
को मिटाने के लिए नैतिक सद्गुणों का विकास अनिवार्य है। ... सामजिक जीवन में व्यक्ति का अहंकार भी निजी लेकिन महत्त्व का स्थान रखता है । शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके केन्द्रिय तत्त्व है।
इसके कारण सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है। शासक और शासित • अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता - निम्नता के मूल में यही कारण
है। वर्तमान समय में अति अविकसित और समृद्ध राष्ट्रोमें अहं की पुष्टि का प्रयत्न है । स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में होता है। जब व्यक्ति के मनमें आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना उबुद्ध होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है, उसे अपने प्रभाव में रखने का प्रयास करता है। जैन और बौद्ध दोनों दर्शनों ने अहंकार, मान, ममत्व के प्रहाण का उपदेश दिया है, जिसमें सामाजिक परतंत्रता का लोप भी निहित है। - और अहिंसा का सिद्धांत भी सभी प्राणियों के समान अधिकारों को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन भी एक प्रकार की हिंसा है । अतः अहिंसा का सिद्धांत स्वतंत्रता के सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध दर्शन एक और अहिंसा-सिद्धांत के आधार पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण समर्थन करते हैं, वहीं
दूसरी और समता के आधार पर वर्गभेद, जातिभेद एवं उँच-नीच की भावना को . समाप्त करते हैं।
शांतिमय समाज की स्थापना के लिए व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण