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जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा का निरुपणः तुलनात्मक दृष्टि से ७१ समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है । समत्वभाव से सहानुभूति तथा अद्वैतभाव से आत्मीयता उत्पन्न होती है और इन्हीं से अहिंसा का विकास होता है। अहिंसा जीवन के प्रति भय से नहीं जीवन के प्रति सम्मान के भाव से विकसित होती है।
जैन और बौद्ध धर्म में अहिंसा का व्यापक रीत से परिचय दिया गया है । इससे अहिंसा का स्वरूप भली-भाँति समझ सकते हैं।
जैन धर्मपरंपरा हिंसा का दो पक्षों से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्यहिंसा कहा गया है। द्रव्यहिंसा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है, जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहणन, मारना-ताडना आदि नामों से जाना जाता है। भाव-हिंसा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है जो प्रमादजन्य है। रागादि कषाय का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि कषायों और प्रमादवश किया जानेवाला प्राण-वध हिंसा है।
__जैन-दर्शन में इसी आधार पर सूक्ष्म रूप से हिंसा के चार रूप माने गये
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१. संकल्पना (संकल्पिक हिंसा - अर्थात् संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा
करना । यह. आक्रमणात्मक हिंसा है । २. . विरोधजा हिंसा - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन एवं सत्त्वों
(अधिकारों) के रक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना । यह
सुरक्षात्मक हिंसा है। ३. उद्योगजा हिंसा - आजीविका उपार्जन अर्थात उद्योग एवं व्यवसाय के
निमित्त होनेवाली हिंसा । यह उपार्जनात्मक हिंसा है। ४. . आरम्भजा हिंसा - जीवननिर्वाह के निमित्त होनेवाली हिंसा - जैसे
भोजन का पकाना । यह निर्वाहात्मक हिंसा है।
जहाँ तक उद्योगजा और आरंभजा हिंसा की बात है - एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता । क्योंकी जब तक शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का
अर्जन और शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति - दोनों ही आवश्यक हैं । यद्यपि इस .. स्तर पर मनुष्य अपने को त्रस प्राणि की हिंसा से बचा सकते है । जैन धर्म में
उद्योग-व्यवहार एवं भरण-पोषण के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा करने का निषेध