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बौद्ध और जैनदर्शन के विविध आयाम
महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही है। जैन धर्मकथाओं और काव्यों में जिसका बार बार माहात्म्य बताया गया है वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह की भावना हमारे सामाजिक संबंधो की शुद्धि, संवादिता और शांतिमय सहजीवन के लिये ही ज्यादा उपकारक है। लोक-मंगल की भावना उसमें सर्वोपरि है ।
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जैन धर्म की परिभाषा और स्वरूप का उचित रूप से प्रागट्य इस श्लोक में हुआ है :
स्याद्वादो वर्ततेऽस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यं पीडनं किंचित् जैनधर्मः स उच्यते ॥
यहाँ वर्णित अहिंसा, अनाग्रह अनेकान्त और अपरिग्रह सामाजिक समता की स्थापना के लिए अनिवार्य है । जब पारस्परिक व्यवहार इन पर अधिष्ठित होगा, तभी सामाजिक जीवन में शांति और समभाव संभव होंगे। अहिंसा का मूल आधार आत्मवत दृष्टि है | मैत्री और करुणा उसका विधायक भाग है । वैयक्तिक जीवन
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अपरिग्रह और अनेकान्त दृष्टि तथा सामाजिक जीवन में अहिंसा, यही समत्वयोग की साधना का व्यवहारिक पक्ष है और वही विश्वशांति की प्रस्थापना में सहायक बन सकता है ।
यह समत्व की साधना सदाचाररूप धर्म द्वारा सिद्ध होती है, धर्मदर्शन और आचार अत्याधिक संलग्न है । नैतिक नियमों जो धर्म की वजह से निर्दिष्ट किये गये हैं वे मूलतः वैयक्तिक और सामाजिक शांति के भी आधाररूप है । वैयक्तिक आचार की विशुद्धि सारे संसार की आधारशीलारूप है, क्योंकि व्यक्ति ही समाज का केन्द्र है । इसलिए शांतिमय समाज की स्थापना के लिये व्यक्ति का नीतिधर्म से प्रेरित अहिंसापूर्ण आचार का ही प्राकृत भाषा में रचित अनेक साहित्यिक कृतियों महद् अंश से निरूपण हुआ है, एवं माहात्म्य बाताया गया है । जैनधर्म में अहिंसा की भावना के साथ सबके प्रति आत्मवत् दृष्टि और मैत्रीभावना का भी महत्त्व बताया गया है - जैसे
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संधि लोगस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास ।
तम्हा हंता ण विधातए ॥ ( आचारांग सूत्र - १,३,३,१)
यह लोक - यह जीवन - धर्मानुष्ठान की अपूर्व सन्धि-वेला है । इसे जानकर साधक बाह्य जगत को अन्य आत्माओं को, प्राणीमात्र को आत्मसदृश्य अपने समान समझे । किसी का हनन न करे। पीडोत्पादन न करें ।
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